v नारी
की महत्ता
-भूपेन्द्र कुमार
विशिष्टसंस्कृताध्ययनकेन्द्रम्
जवाहरलालनेहरुविश्वविद्यालय
नई दिल्ली-११००६७
उपनिषदिक काल में एक प्रसङ्ग आता है जब महर्षि याज्ञवल्क्य
यज्ञसमाप्ति के पश्चात् जब सम्पूर्ण सांसारिक पदार्थ, सम्पूर्ण उपभोग की वस्तुएँ अपनी
पत्नी मैत्रेयी को देकर वन में प्रस्थान करने लगते है तब वह विदुषि महिला अपने ब्रह्मविषयक
ज्ञान का परिचय देते हुए बड़े ही आत्मविश्वास से कहती है कि मुझे यह तुच्छ वस्तुएँ नहीं
चाहिए अपितु “येनाहं नामृता स्याम् तेन त्वाम् कुर्या” अर्थात् जिस धन से मै अमरत्व को प्राप्त
करुँ ऐसा धन मुझे दो। कितनी उच्च भावना थी उस स्त्री के मन में ? इसीलिए तो संसार के
प्राचीन वेद ऋग्वेद में कहाँ गया है कि स्त्री हि ब्रह्मा बभूविथ। अर्थात् यज्ञ
की ब्रह्मा स्त्री हो, स्त्री को उस समय ब्रह्मा की उपाधि प्रदान की गयी थी।
मनुष्य के जीवन निर्माण
में माता का महत्वपूर्ण योगदान होता है इसीलिए तो माता निर्माता भवति कहा गया है। अथर्ववेद में नारी के लिए “शिवा”
अर्थात् कल्याण करनेवाली शब्द का प्रयोग हुआ है और नारी को “कुलपा” अर्थात् कुल की रक्षा
करने वाली कहा गया है। लेकिन इन गुणों से युक्त होने के लिए नारी का शिक्षित एवम् सद्गुणोपेत
होना अत्यावश्यक है। यजुर्वेद में नारी के लिए “इष्टका” अर्थात् ईंट शब्द
का प्रयोग हुआ है। जिसप्रकार गृह निर्माण में ईंट का बहुत बड़ा योगदान होता है। मकान
की दीवारें ईंटों से बनायी जाती हैं। जिसपर सम्पूर्ण मकान टिका हुआ होता है, ठीक उसीप्रकार
महिला परिवार रूपी मकान का निर्माण करती है उसे टूटने से बचाती है। ईंटें यदि कच्ची
होगी तो दीवार टूटकर मकान गिर जायेगा। उसीप्रकार नारी यदि कमजोर, अशिक्षित और सद्गुणों
से सम्पन्न न रहीं तो परिवार टूट जायेगा, बिखर जायेगा। इसीलिए यजुर्वेद में ही कहा
गया है- शुद्धा पूता योषिता यज्ञिया इमा। यहाँ नारी के लिए योषा शब्द का प्रयोग
हुआ है जिससे तात्पर्य है सबको जोड़कर मिलाकर रखनेवाली। नारी परिवार के सभी सदस्यों
को जोड़कर रखती है जिससे परिवार का ताना-बाना सदा सुरक्षित रहता है। इसलिए उसे “स्मयमानासः”
अर्थात् मुस्कुराती हुई प्रसन्न रहने वाली कहा गया है। वह स्वयं प्रसन्न रहकर परिवार
के सभी सदस्यों को प्रसन्न रखती है। नारी के इन्हीं गुणों के कारण महाराज मनु ने कहा
है –
न गृहं गृहमित्याहुः गृहिणी गृहमुच्यते । अर्थात् गृहिणी के बिना घर घर नहीं कहलाता है। वैदिक काल में वेदों के
पठन-पाठन, प्रचार-प्रसार में महिलाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा हैं। इसीलिए मन्त्रद्रष्टि
अनेक ऋषिकाएँ रहीं हैं। यथा- अपाला,घोषा,लोपामुद्रा,उर्वशी,विश्ववारा
इत्यादि।उपनिषत्काल में भी गार्गी और मैत्रेयी
जैसी ब्रह्मवादिनी महिलाएँ रहीं हैं; जिन्होंने ऋषियों के साथ शास्त्रचर्चा करके अपने
अगाध पाण्डित्य का परिचय दिया था।
महिलाओं
कि यह गरिमामयी सम्मानास्पदस्थिति रामायण काल तक भी ठीक रही किन्तु महाभारत के काल
से उनका सम्मान सतत् घटता रहा व महाभारत के युद्धोपरान्त तो स्त्री-अस्मिता, सम्मान
और उनके वैदुष्य से सम्बद्ध अनेक प्रकार के अन्धविश्वास और मिथ्या अवधारणायें समाज
में पनपने लगीं। उन्हीं अवधारणाओं से यह प्रबल मान्यता प्रचलित हो गयी कि “स्त्रीशूद्रौ
नाधीयाताम्” अर्थात् स्त्री और शूद्रों को वेदादि सच्छास्त्र पढ़ने का अधिकार
नहीं हैं। यहाँ तक लिख दिया कि “मन्त्रोच्चारणे जिह्वाच्छेदः”अर्थात्
स्त्री और शूद्र मन्त्र बोलें तो उनकी जिह्वा काट देनी चाहिए। इसप्रकार की मिथ्या धारणाओं
को लेकर नारी जाती को शिक्षा व वेद ज्ञान से वंचित कर दिया गया। उसी श्रृंखला में श्रीरामचरितमानस
के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी अपना योगदान देना नहीं छोड़ा। वे लिखते हैं-
विधिहु
न नारी हृदय गति जानी। सकल कपट-अघ-अवगुन खानी॥
उन्होंने और भी लिखा हैं-
अधम
ते अधम अधम अति नारी। तिन्ह मह मैं मतिमन्द अगारी॥
ढ़ोल-गँवार-शूद्र-पशु-नारी।
सकल ताड़न के अधिकारी॥
नारी
सुभावु सत्य सब कहहिं। अवगुण आठ सदा उर रहहिं॥
साहस,अनृत,चपलता,माया।भय,अविवेक,अशोच,अदाया॥
अर्थात्
मै सत्य कहता हूँ कि नारी के शरीर में आठ अवगुण सदा रहते हैं- १.साहस,२.अनृत,३.चंचलता,४.माया,५.साहस,६.अविवेक,७.अपवित्रता,८.निर्दयता।
और तो और शंकराचार्य ने भी प्रश्नोत्तरमालिका नाम्नि पुस्तक में लिखा है-किमेकं नरकस्य
द्वारम्? नारी।
अर्थात् नारी ही एकमात्र नरक का दरवाज़ा है।
इन्हीं
मिथ्या और कलुषित अवधारणाओं का परिणाम यह हुआ कि नारियों को शिक्षा से विमुख किया गया
जिससे सुयोग्य सन्तान का निर्माण न होने के कारण राष्ट्र परतन्त्रता की बेड़ियों में
जकड़ा गया। इस विनाशकारी स्थिति को महर्षि दयानन्द सरस्वति ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से
देखा और-“यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः……।” जैसे मन्त्र को प्रस्तुत्
करके यह निर्भीक उद्घोष किया कि “नारी को भी
शिक्षा का उतना ही अधिकार है जितना कि पुरूष को है। उन्होंने अपने अमरग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश
में भी लिखा है कि “वह कुल धन्य है, वह सन्तान बड़ी भाग्यवान है जिसके माता और पिता
धार्मिक,विद्वान् हैं। जितना माता से सन्तानों को उपदेश और उपकार पहुँचता हैं उतना
किसे से नहीं।” उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि योग्य और विदुषि महिलायें ही सन्तान
को सुशिक्षित करने में सफल होती हैं। मनुस्मृति में भी लिखा है-
उपाध्यायान्
दशाचार्य आचार्याणां तु शतं पिता।
सहस्त्रं
तु पितॄन् माता गौरवेनातिरिच्यते॥
अर्थात्
दस अध्यापकों से एक आचार्य और सौ आचार्यों से एक पिता और हजार पिताओं से भी अधिक एक
माता का गौरव है। अतः कहा भी गया है- “मातृवान्
पितृवान् आचार्यवान् पुरूषो वेद।”
एक
सुशिक्षित माता ही वेद के शब्दों में उद्घोष करती है कि “मम पुत्र शत्रुहणा अथो मे दुहिता
स्वराट्।” अर्थात् मेरे पुत्र शत्रुओं का विनाश करनेवाले हो तथा मेरी पुत्री उससे
भी अधिक पराक्रमशालिनी हो। अन्त में मेरा केवल यहीं निवेदन है कि कन्याभ्रूण हत्या
का निषेध करें व प्रत्येक नारी को सम्मान की दृष्टि से देखें क्योंकि कहते हैं –
क्या कर नहीं सकती
भला यदि शिक्षिता हो नारियाँ,
रण-रंग-राज्य-सुधर्मरक्षा
कर चुकी सुकुमारियाँ।
सोचो! नरों से नारियाँ
किस बात से हैं कम हुईं,
मध्यस्थ में शास्त्रार्थ
में हैं भारती के सम हुईं॥
॥इत्यो३म्
शम्॥
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