Thursday, 8 August 2013

v संस्कृत की गिरती साख व भारतीय संस्कृति
           संस्कृत साहित्य में एक उक्ति है- “संस्कृतिः संस्कृताश्रिता” अर्थात् हमारी संस्कृति संस्कृत भाषा पर आश्रित है। इससे स्पष्ट होता है कि यदि हमें अपनी संस्कृति बचानी है तो यह आवश्यक है कि हम संस्कृत को पढ़े ,उसे जानें। क्योंकि बगैर संस्कृत भाषा के अपनी संस्कृति का अस्तित्व हो ही नहीं सकता। संस्कृत पढ़ने से हमें नैतिक मूल्यों की जानकारी मिलेगी जो व्यक्ति के चारित्रिक उत्थान में मेरुदण्डवत् महत्त्वपूर्ण हैं। आज हम देख ही रहे हैं कि व्यक्ति बड़ी-२ उपाधियां प्राप्त कर लेता है किन्तु जीवनावश्यक कुछ नैतिक पहलुओं को वह नहीं सीख पाता जिसके कारण उसकी वह जिन्दगी नरकतुल्य बन जाती है।
                        यदि आज हम संस्कृत की समसामयिक स्थिति पर दृष्टिपात् करें तो ज्ञात होगा कि जितनी बिकल स्थिति एक वृद्धा नारी की अपने ही घर में होती है ठीक कुछ इसीप्रकार की दशा संस्कृत भाषा की अपने देश में है जो अपने ही घर से अपनों के ही द्वारा निकाली जा रही है। अंग्रेजी को साधारण छोटे-२ बच्चें भी जिसप्रकार स्वीकार करते हैं उसी प्रकार संस्कृत भाषा को क्यों नहीं सुनना या पढ़ना चाहते हैं । इस पर मै एक दृष्टान्त देना चाहुंगा – जब मै B.ed की लेसन प्लानिंग के दरम्यान भोपाल(म.प्र.) की एक स्कूल में पढ़ाने गया। विषय संस्कृत था और हमें पहले ही हिदायत दी गयी थीं कि संस्कृत में ही पढ़ायें। तदनुसार मै सर्वसाधारण संस्कृत में बस एक ही वाक्य बोला था कि कक्षा के अधिकांश छात्रों ने शोर मचाकर अपील की कि सर…..! सर हमें संस्कृत समझ में नहीं आती” तब मैने वही एक पैराग्राफ अंग्रेजी भाषा में बोला तो ऐसा प्रतीकार किसी ने भी नहीं किया कि समझ में नहीं आरहा है; मैने बाद में छात्रों से कुछ प्रश्न पूछें तो एक ने भी उत्तर नहीं दिया । मेरे समझ में ये बिल्कुल भी नहीं आया कि उनको संस्कृत भी समझ नहीं आई और अंग्रेजी भी , पर उन्होने कम-से-कम अंग्रेजी को सुन तो लिया । वे बच्चें तो संस्कृत को सुनने के लिए भी तैयार नहीं; ऐसा क्यों? यह बात केवल एक स्कूल या केवल भोपाल तक ही सीमित नहीं अपितु समस्त भारत देश के स्कूलों की यहीं दशा हैं। यहां तक कि अब गुरुकुलों और आश्रमों तक भी यह दशा अछूती नहीं रहीं है। तो फिर कैसे मिलेगा हमें सद्ज्ञान ? कैसे मिलेगी हमें सन्तुष्टि और शान्ति? कैसे होगा हमारा चारित्रिक विकास? आज इसी का परिणाम है कि समाजकण्टक कार्य बढ़ गयें हैं। कहीं कोई छात्र आत्महत्या कर रहा है, तो कहीं एक मासूम नाबालिग लड़की के साथ बलात्कार हो रहा है। छात्रों में धूम्रपान व मद्यपान करने की लत आम हैं। मेरे विचार से यह सारा इसी कारण हो रहा है कि हमने संस्कृत को पढ़ना और संस्कृति को जानना छोड़ दिया जिसके कारण यह सारे व्यभिचार बढ़े हुए हैं। इस दशा का एक कवि ने बड़ा सुन्दर वर्णन किया है –
जी रहे हैं लोग कैसे आज के वातावरण में ,
दिन तो जाता बोतलों में रात जीती जागरण में।
धूर्त के माथे मुकुट है साधना की मांग सूनी,
वैश्या दोष निकालती है पतिव्रता के आचरण में।
आँख हो जब बेशरम तो व्यर्थ घूंघट क्या करेगा,
आदमी नंगा खडा है, सभ्यता के आवरण में॥
          इसी परिप्रेक्ष में आज भारतीय नारी की उन्नति हो रही या अवनती यह भी जान लें। मुझे लगता है कि महर्षि दयानन्द न होते तो शायद स्त्रियों को पढ़ने की अनुमति किसी भी काल में मिलनी सम्भव नहीं थीं। भले ही लोग महर्षि दयानन्द जी को और किसे कार्य के लिए न माने पर यह निर्विवाद सत्य है कि देश स्त्रीशिक्षा व सामाजिक क्षेत्र में वैचारिक क्रान्ति फैलानेवाला वह पहला व अकेला वीतराग संन्यासी था। तभी तो अरविन्द घोष जी ने अपनी पुस्तक light of truth के पेज़ नं.- xxxv पर लिखा है-“ Swami Dayananda was a soldier of light, a worrior in God’s World, a sculptor of men and institutions, a man with God in his soul ,vision in his eyes and power in his hands to hew out of life an image according to his vision.”
          इसप्रकार हमें इसबात को भी मानने में दोराय न होनी चाहिए कि उन्होंने ही तो सर्वप्रथम वेद पढ़ने की अनुमति शूद्र व स्त्री समाज को दी थीं। यह उन्हीं का विचार था कि “ यह वेदवाणी सभी जनों के कल्याण के लिए हैं चाहे वह ब्राह्मण हो, क्षत्रीय हो,वैश्य हो या फिर शूद्र अथवा नारी ही क्यों न हो” तब से नारी व शूद्र शिक्षा के क्षेत्र में क्रान्ति की ज्वाला भड़की व उसी क्रान्ति का परिणाम है कि आज महिलायें पुरुष से दो कदम आगे बढ़ने का प्रयास कर रही हैं, किन्तु दुःख की बात तो यह है कि वे भी यह भूल गयीं हैं कि तथाकथित कुछ जातिवादी ब्राह्मणों ने जिस भाषा को पढ़ने से इन्हें रोका था वह मूलतः संस्कृतभाषा ही थी। होना तो यह चाहिए था कि संस्कृत पढ़ने की, वेदपढ़ने की इच्छा उनकी ज्यादा होनी चाहिए थीं। जिससे अनैतिकता ,अनाचार कम-से-कम नहीं तो भारत देश में कम होता ही। पर आज की नारी को देखकर यह सुदूरवर्ती असम्भव लग रहा है। यदि आज भी इन व्यभिचार से स्त्रियां सतर्क होकर दूर हो जायें तो बहुत मुमकिन है कि इसप्रकार कि अनैतिकता का प्रमाण घट जाये। इसबारे में नारी समाज को चेतावनी देते हुए किसे कविने लिखा है –
नारी! नारी!! नारी!!!
अपमान तुम्हारे हाथों में, सम्मान तुम्हारे हाथों में।
भावी भारत गरिमा का प्रमाण तुम्हारे हाथों में ।
सम्भलो! सम्भलो!! सम्भलो!!!
नारी समाज अब तो सम्भलो!
भाता न यदि परमार्थ तुम्हें तो अपने हित अपनी ही सुध लो॥
          महर्षि दयानन्द सरस्वति जी का वैदिक संस्कृति व शिक्षा को प्रचारित-प्रसारित करने में बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण योगदान हैं। स्वामी जी ने शिक्षा के अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि “शिक्षा सत्य आचरण की योग्यता है।” उन्होंने और भी लिखा है कि  “वास्तव में जिस राज्य में पालन-पोषण और शिक्षा की उत्कृष्ट योजना का अनुसरण होता है वहां के निवासी सद्स्वभाव वाले होते हैं। सद्-शिक्षा के कारण उनकी और अधिक उन्नति होती हैं और उनमें सन्तानोत्पत्ति के गुणों की वृद्धि होती हैं।” ये शब्द आज भी अपना मूल्य रखते हैं। उनके शिक्षासे सम्बन्धित विचार सत्यार्थ-प्रकाश के तृतीय समुल्लास में देखने को मिलते हैं-
      I.        बालकों को पाँच वर्ष और बालिकाओं को आठ वर्ष की अवस्था में शिक्षा प्राप्त करना आरम्भ कर देना चाहिए।
    II.        बालक और बालिकाओं की शिक्षा संस्थाएं नगर के कोलाहल से दूर किसी एकान्त स्थान में और एक-दूसरे से कोसों दूर होनी चाहिए।
   III.        बालकों की शिक्षा संस्थाओं में सब शिक्षक, कर्मचारी एवं सेवक पुरुष और बालिकाओं की शिक्षा संस्थाओं में स्त्रियां होनी चाहिए।
  IV.        बालकों और बालिकाओं को ज्ञानप्राप्ति के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।
   V.        उनमें हवन,प्रार्थना,प्राणायाम आदि के द्वारा काम प्राप्ति पर अधिकार करने की क्षमता उत्पन्न की जानी चाहिए।
  VI.        उनमें सत्य, इमानदारी, सादा जीवन, आत्मत्याग, एवं आत्मसन्तोष के आदर्शों का समावेश किया जाना चाहिए।
VII.        सब वर्णों की स्त्रियों और पुरुषों को किसी भेदभाव के बिना शिक्षा प्राप्त करने का समान अधिकार होना चाहिए। इत्यादि अनेक विचार उन्होंने दियें हैं।इन सबके पीछे उनका उद्देश्य यही था कि इससे वैदिक संस्कृति का पुनरुत्थान हो, मनुष्य के विशुद्ध चरित्र का निर्माण हो व मनुष्य में राष्ट्रियता,एकता,एवं विश्वबन्धुत्व की भावना का विकास हो।
                      इसप्रकार वास्तव में यदि देखा जाएं तो शिक्षा तभी सार्थक हो सकती है जब उससे मानव चरित्र का विकास हो और मानव चरित्र का विकास तभी होगा जब हम हमारी  वैदिक संस्कृति के नीतिसिद्धान्तों को जानेंगे और इसके लिए आवश्यक है कि हम संस्कृत भाषा को जानें कहां भी गया है-
संस्कृतम् यो विजानाति, संस्कृतः स हि देवराट्।
संस्कृतम् यो न जानाति संस्कृतः स कथं भवेत्॥
और इसीलिए संस्कृत को ज्ञान का भण्डार कहा गया है। अत एव सम्प्रति लोगों से मेरा यहीं नम्र निवेदन है कि अपने संस्कृत भाषा की गिरती हुई साख़ को सुधारने मे योगदान दें व उससे दूर जाने की अपेक्षा उसे अपनाने का प्रयास करें। तभी अपनी प्राचीन भारतीय वैदिक संस्कृति की रक्षा हो सकती है। अतः आओ हम सभी मिलकर यह प्रण करें कि हम भारतीय संस्कृति की शाम न होने देंगे,
भारतीय परम्पराओं को गुमनाम न होने देंगे,
जबतक रगों मे लहू की एक भी बूँन्द बाकी है
भारतीय संस्कृति को बदनाम न होने देंगे॥
                                                ॥इत्यो३म् शम्॥


No comments:

Post a Comment