vन्यायवैशेषिक दर्शनों के अनुसार
आत्मा का स्वरूप
Bhupendra Vidyalankar
S.C.S.S.
J.N.U.
New Delhi-67
Ø भूमिका --
उद्देश्यक्रमानुसार वैशेषिक दर्शन का
अष्टम द्रव्य
आत्मा है
और न्यायानुसार
प्रमेयों में
प्रथम स्थान
आत्मा का
है। यही
द्रव्य “चैतन्य”, “चेतना” या “चितिशक्ति” का द्योतक है,तथा श्रुतियों
में इसी
तत्त्व को
जानने का
उद्घोष किया
गया है।[1] यह तो
प्रत्यक्षसिद्ध तथ्य
है कि
इस जगत्
में अचेतन
भूत या
जड तत्त्व
के अतिरिक्त
एक चेतन
सत्ता ज्ञाता,
कर्ता और
भोक्ता भी
आवश्यक है।
वस्तुतः उसी
चेतन तत्त्व
के उपभोग
के लिए
तो यह
सारा भौतिक
जगत् है
जिसका वास्तविक
ज्ञान निःश्रेयस
का का
कारण है
तथा जिसका
विपर्यस्त ज्ञान
संसार का
हेतु है।[2]
इस
आत्मतत्त्व का
स्वरूप पृथक्-पृथक् दर्शन
सम्प्रदायों ने
भिन्न-भिन्न प्रकार का
माना व
बताया है।
इस विषय
में उद्योतकराचार्य का कथन है
कि आत्मा
के सद्भाव
के विषय
में किसी
वादी की
विप्रतिपत्ति नहीं
है,
किन्तु उसके
विशेषस्वरूप के
विषय में
ही मतभेद
है।[3]
Ø आत्मा की
सिद्धि –
आत्मा
की सिद्धि
हेतु प्रत्यक्ष,
अनुमान, शब्द ये तीनों
प्रमाण दिये
जा सकते
हैं।
प्रत्यक्ष
– आत्मा के
प्रत्यक्षत्व के
विषय में
न्याय वैशैषिक
के विद्वानों
में पर्याप्त मतभेद है।
उद्योत्कराचार्य एवं
व्योमशिवाचार्य के
अनन्तर तो
यह सिद्धान्त
सर्वथा मान्य
हो गया
कि आत्मा
का मानस-प्रत्यक्ष होता
है।
“कणाद” आत्मा का सामान्य
जन द्वारा
मानस-प्रत्यक्ष नहीं मानते—
अनेक विद्वानों ने
“तत्रात्मा मनश्चाप्रत्यक्षे”[4] इस वैशैषिकसूत्र
को आधार
बनाकर यही
प्रतिपादित किया
है कि
कणाद के
अनुसार सामान्य
जन को
आत्मा का
प्रत्यक्ष असम्भव
है।
शंकरमिश्र
का मत:
कणाद के
अनुसार आत्मा
मानसप्रत्यक्ष का
विषय है—
वैशेषिक
सूत्र के
व्याख्याकार शंकरमिश्र
ने तृतीय
अध्याय के
द्वितीय आह्निक
में सूत्रों
की व्याख्या
करते हुए
यहीं प्रतिपादित
किया कि
कणाद को
आत्मा कामानस-प्रत्यक्ष अभिमत
था। तदनुसार
’मै हूं’
यह ज्ञान
लिङ्ग से
जन्य अनुमान
नहीं[6]है,
चूंकि उक्त
ज्ञानादि आत्मा
के साधक
है,
ऐसा जाने
बिना भी
,’मै दुखी
हूं’
इत्यादि प्रतीति
होती है।
न ही यह ज्ञान
शाब्द ज्ञान
है,
चूंकि ’मै दुखी हूं’
इत्यादि शाब्दज्ञान
बिना भी
मानस प्रत्यक्ष
होता ही
है। अतः
शरीरादि आत्मा
नहीं है
किन्तु उनसे
भिन्न उनका
अधिष्टाता आत्मा
ही है।
पूर्वपक्ष की शङ्का-
“मै”
पद अनिवार्यतः
आत्मा का
ही वाचक
नहीं होता
जैसे –“मै मोटा हूं”
“मै अन्धा
हूं”-
इत्यादि वाक्यों
में
“मै”
पद या
तो शरीर
को व्यक्त
करता है
या इन्द्रिय
को
?
समाधान- विरोधी
ने उक्त
वाक्य में
शरीर और
आत्मा को
अभिन्न मानने
की भ्रान्ति
की,
अतः उसका
तर्क ही
दोषपूर्ण है।
अहं पद
का वाच्य
केवल आत्मा
है,[7] --
शरीर या
इन्द्रिय को
उसका वाच्य
मानना भ्रमपूर्ण
एवं अनुचित
है।[8]
प्रशस्तपाद एवं उनके
व्याख्याकारों का मत
– यद्यपि स्वयं
प्रशस्तपाद ने
तो आत्मा
का प्रत्यक्षत्व
स्वीकार नहीं
किया तथा
अतिसूक्ष्म होने
से उसकी
अप्रत्यक्षता ही
मानकर अनुमान
द्वारा उसकी
सिद्धि की
है परन्तु
उनके सभी
व्याख्याकारों
-- व्योमशिवाचार्य,उदयनाचार्य,
श्रीधराचार्य आदि
ने इस
अंश की
प्रकारान्तर से
व्याख्या कर
, यही प्रतिपादित
किया कि
यद्यपि आत्मा
का मानसप्रत्यक्ष
तो होता
ही है
परन्तु सौक्ष्म्य
का अभिप्राय
यहीं व्यक्त
करना है
कि उसका
बाह्येन्द्रियों द्वारा
ग्रहण सम्भव
नहीं है।
अनुमान – आत्मा
का शरीर,
इन्द्रियों एवं
मन आदि
से पृथक
निश्चित् अस्तित्व
सिद्ध करने
के लिए
अनुमान का
आश्रय भी
लेना पडता
है। यहां
पूर्वपक्षी शङ्का
कर सकता
है कि
जब प्रत्यक्ष
से आत्मा
का अस्तित्व
सिद्ध है,
तब फिर
अनुमान की
क्या जरुरत
? चूंकि गज
को प्रत्यक्ष
देख लेने
पर फिर
लोग चीत्कार
रूप में
शब्द से
उसका अनुमान
नहीं किया
करते। शंकर
ने इस
शङ्का का
समाधान सिद्धान्तमतानुसार दो प्रकार से
किया –
अ)
प्रथमतः आत्मा का
प्रत्यक्ष होता
है यह
सिद्धान्त सभी
को मान्य
नहीं इसलिए;
आ) द्वितीय ,ऐसा देखा जाता
है कि
तर्कप्रिय विद्वान्
प्रत्यक्षसिद्ध वस्तु
को भी
अनुमान से
सिद्ध करने
में प्रसन्न
होते हैं।
आत्मास्तित्वसाधक अनुमान—
सूत्रकार
कणाद ने
आत्मा की
अनुमिति के
लिए ये
साधक लिङ्ग
दिए हैं-
प्राण-अपान, निमेष-उन्मेष, जीवन, मनोगति, इन्द्रियान्तरविकार, सुख-दुख,
इच्छा-द्वेष और प्रयत्न।[9] इन लिङ्गों
के द्वारा
“आत्मा” की सिद्धि इसप्रकार
की जा
सकती है—
१)
प्राण-अपान –
शरीर के मध्य
संचार करने
वाले प्राण
एवं अपान
रूप वायुओं
की ऊर्ध्वप्रदेश
तथा अधोदेश
में श्वास-प्रश्वासरूप गति
के द्वारा
,भाथी को
चलाने वाले
की भांति
,शरीर सम्बन्धी
प्राण-अपान रूप वायु
के भी
चलाने वाले चेतन कर्त्ता का
अनुमान होता
है वहीं
आत्मा है,
यह सिद्ध
होता है।
२)
निमेष-उन्मेष-
प्रशस्तपाद का कथन
है कि
जैसे कठपुतली
को देखकर
उसे नचाने
वाले का
बोध होता
है,
उसी प्रकार
निमेष और
उन्मेष की
क्रिया से
आत्मा का
अनुमान होता
है। इस
अनुमान को
किरणावलीकार ने
भी प्रयुक्त
किया है।
३)
जीवन-
इसी प्रकार जीवन
भी आत्मा
का साधक
है,
अर्थात् देह
की वृद्धि,घाव एवं
टूटे हुए
अंगों का
सङ्घटन आदि
क्रियाओं से
भी घर
के मालिक
की तरह
प्रयत्नविशिष्ट आत्मा
का बोध
होता है।[10]
४)
मनोगति-
प्रशस्तपाद के अनुसार
मन की
क्रिया अथवा
गति भी
आत्मा की
साधक है।
अभीष्ट विषयों
को ग्रहण
करने वाली
चक्षुरादि इन्द्रियों
का विषयों
के साथ
संयोग कराने
वाले मन
की गति
से भी
अनुमान होता
है कि
उस मन
का संचालक
कोई चेतन
आत्मा है;
जैसे की
घर के
अन्दर बैठा
होने से न दिखाई देने
पर भी
, लाख की
गोली अथवा
गेन्द को
घर के
भीतर ही
इधर०उधर चलाने
वाला कोई
बालक है,
ऐस अनुमान
होता है।[11]
५)
इन्द्रियान्तरविकार-
इन्द्रियान्तर से भी
आत्मा की
सिद्धि होती
है।[12] तात्पर्य यह
है कि
जसे चाक्षुष्
ज्ञान के
बाद रस
की स्मृति
के क्रम
से रसनेन्द्रिय
में विकार
देखा जाता
है,इससे भी
अनेक गवाक्षों
से देखने
वाले की
तरह रूप
और रस
दोनों के
एक ज्ञातारूप
आत्मा का
अनुमान होता
है।[13]
६, ७,
८)
सुख-दुःख, इच्छा-द्वेष और
प्रयत्न-
वैशेषिक आचार्यों
ने न
केवल पूर्वोक्त
हेतुओं से
अपितु सुख_द्खादि हेतुओं
से भी
उनके आश्रय द्रव्य
गुणी आत्मा
का अनुमान
किया है।
न्यायसूत्रकार ने
तो आत्मा
की सिद्धि
के लिए
केवल इन्हीं
गुणों को
हेतुरूप में
प्रयुक्त किया
है। प्रशस्तपाद
ने इस
अनुमान का
प्रयोग करते
हुए काहा
है कि
सुख,
दुःख, इच्छा, द्वेष और
प्रयत्न गुण
हैं,
अतः उनका
आश्रय कोई
न कोई द्रव्य होना
ही चाहिए।
९)
प्रवृत्ति-निवॄत्ति-
जैसे रथ की
गति रूप
क्रिया दे
सारथि का
अनुमान होता
है,उसी प्रकार
शरीर में
समवाय सम्बन्ध
से रहने
वाली हित
की प्राप्ति
एवं अहित
का परिहार
इन दोनों
की प्रायोजक
प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप क्रियाओं के
द्वारा प्रयत्न
से युक्त
आत्मा रूप
शरीर के
अधिष्ठाता का
बोध होता
है।[14]
१०)
श्रोत्रादि करण-
प्रशस्तपाद का कथन
है कि
शब्दादिप्रत्यक्ष से
अनुमित होने
वाले श्रोत्रादि
करणों से
भी आत्मा
का अनुमान
होता है।
तात्पर्य यह
है कि
करण या
इन्द्रिया अचेतन
होने से
स्वतः तो
सक्रिय हो
नहीं सकती
,उनको चलाने
वाला कोई
चेतन अधिष्ठाता
तो होना
ही चाहिए,
वही आत्मा
है यह
सिद्ध होता
है।[15]
११)
ज्ञानादि क्रियाएं-
प्रशस्तपाद
के अनुसार
आत्मा की
सबसे प्रबल
और अन्तिम
युक्ति यह
है कि
शब्दादि विषयक
ज्ञानादि क्रियाओं
से भी
उक्त क्रिया
के आश्रयरूप
कारण आत्मा
की अनुमिति
होती है।[16]
इसी
के अन्तर्गत
चार्वाकादियों की
शङ्काओं का
समाधान भी
किया गया
है---
१)
चैतन्य शरीर का
धर्म नहीं
हो सकता—
प्रशस्तपाद का कथन
ह्सि कि
ज्ञान या
चैतन्य शरीर
का धर्म
नहीं है
क्योंकि वह शरीर,
घटादि की
भांति भूतद्रव्यों
से उत्पन्न
होता है
तथा जितने
भी कार्य
भूतद्रव्यों से
उत्पन्न होते
हैं
,जैसे – घट आदि। अतः
यही सिद्ध
होता है
कि चैतन्य
शरीर का
धर्म नहीं
है। न्यायसिद्धान्तमुक्तावलीकार का
विचार है
कि चैतन्य
को शरीर
का धर्म
माना जायेगा
तो बाल्यावस्था
में अनुभूत
विषयों का
वृद्धावस्था में
स्मरण ही
अनुपपन्न हो
जायेगा ,अतः शरीर को
ही चैतन्य
का आश्रय
मानने वाले
चार्वाक का
मत सर्वथा
अयुक्त ही
सिद्ध होता
है।[17]
२)
चैतन्य इन्द्रियों का
धर्म भी
नहीं हो
सकता—
प्रशस्तपादानुसार ज्ञान या
चैतन्य इन्द्रियों
का गुण
भी नहीं
माना जा
सकता,चूंकि वे ज्ञानेन्द्रिय
के करण
है और
इसलिए अचेतन
हैं। जिसप्रकार
दण्डादि करण
अचेतन हैं
उसीप्रकार इन्द्रियां
भी करण
होने से
अचेतन ही
है और
इसलिए उन्हें
चैतन्य का
आश्रय नहीं
माना जा
सकता है।[18]
३)
चैतन्य मन का
भी गुण
नहीं हो
सकता—
सूक्तिकारानुसार इस युक्ति
का अभिप्राय
यह है
कि यदि मन को
चैतन्य का
आश्रय माना
जाये, तो चक्षुरादि इन्द्रियों
तथा उनके
रूपादि तत्तद्
बिषयों के
सर्वदा सन्निकृष्ट
रहने से
मन का
उन उन
इन्द्रियों के
सन्निकर्ष के
बिना एक
साथ अनेक
ज्ञानों की
उत्पत्ति का
प्रसङग उपस्थित
हो जायेगा
जो कि
मन के
कारण होने
से उसके
कर्तृत्व-व्यापारयोग्यत्व में असम्भव
है।[19]
इसप्रकार शरीर,
इन्द्रिय एवं
मन
–तीनों का
ज्ञान गुण
के आश्रय
रूप में
निषेध हो
जाने पर
परिशेषानुमान से
यहीं सिद्ध
होता है
कि ज्ञान
आत्मारूप कारण
का कार्य
है,
अतः ज्ञानरूप
कार्य से
आत्मा रूप
कारण की
सिद्धि होती
है।[20]
न्यायलीलावतीकार ने भी
इसी प्रकार
आत्मा की
सिद्धि करते
हुए कहा
है
–
“तदिन्द्रियविषयबुद्धिदेहाद्यतिरिच्यमानमुपादानमात्मैव”
इसप्रकार यह
सिद्ध होता
है कि
शरीर, इन्द्रिय, विषय और
मन
–ज्ञान के
आश्रय नहीं
हैं,
उससे भिन्न
ज्ञान का
आश्रय एक
पृथक चेतन
द्रव्य है
वहीं आत्मा
है।
Ø आत्मा का
लक्षण –
१) आत्मत्ववान् ही
आत्मा है
– प्रशस्तपाद के
आत्मा का
इस भांति
सङ्केत किया
है कि आत्मत्व नामक जि
सामान्य विशेष
,उससे सम्बद्ध
होने कारण
ही आत्मा
अनेक द्रवों
से भिन्न
है। तर्ककौमुदीकार
लौगाक्षिभास्कर ने
भी
“आत्मत्वसामान्यवान्” –आत्मा
की यहीं
परिभाषा दी
है। तथा
सर्वदर्शनसङ्ग्रह में
भी यहीं
भाव इसप्रकार
व्यक्त किया
है कि
“आत्मा द्रव्यत्व
की उस
जाति का
है जो
अमूर्त द्रव्यों
में समवेत
है।[21]” न्यायसिद्धन्तमुक्तावलीकार ने आत्मत्व
जाति की
सिद्धि में
यह कहा
है कि
सुखदुःखादि के
समवायिकारण की
अवच्छेदकता से
ही आत्मत्व
जाति की
सिद्धि होती
है।[22]
२) चैतन्य या
ज्ञान का
आश्रय आत्मा
है – वादिवागीश्वर ने
आत्मा का
यहीं लक्षण
दिया है
कि ज्ञान
का आश्रय
आत्मा है।[23] अन्नम्भट्ट ने
भी ज्ञान
के अधिकरण
को ही
आत्मा कहा
है।[24] तर्कसङ्ग्रह की
सिद्धान्तचन्द्रोदय टीका
के अनुसार
भी आत्मजन्यज्ञान
का अधिकरण
ही आत्मा
है।[25]
३) द्रष्टा, भोक्ता,
अनुभविता आत्मा है- न्यायभाष्यकार वात्सायन
के शब्दों
में
– आत्मा सबका
द्रष्टा, भोक्ता,
सर्वज्ञ एवं
सर्वानुभावी है।
४) प्रतिसन्धाता आत्मा है
– न्यायवार्तिककार उद्योतकराचार्य के शब्दों में
– प्रतिसन्धाता आत्मा है।
५)
करणों का प्रयोक्ता आत्मा है – उपस्कारकर्ता शंकरमिश्र के
अनुसार आत्मा
इन्द्रियों को
अपने तत्तद्विषयों
में विनियुक्त
करने वाला
द्रव्य है
तथा उन
विषयों का
अनुभव आत्मा
में ही
समवेत रहता
है। विश्वनाथ
ने भी
इन्द्रियों के
अधिष्टाता को
ही आत्मा
कहा है।[26]
Ø आत्मा के
गुण –
वैशेषिक
दर्शन के
अनुसार आत्मा
में अधोक्त
चतुर्दश गुण
माने गये
हैं – बुद्धि,
सुख,
दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयन्त, धर्म, अधर्म, संस्कार,संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग और
विभाग।[27] इनमें से
प्रथम नौ
तो आत्मा
के विशेष
गुण हैं।
और अन्तिम
पाँच अन्य
द्रव्यों में
भी पाये
जाते हैं।
अतः प्रसङ्गानुसार
अनका वर्णन
निम्नवत् है
–
१)
वैशेषिक दर्शन में
ज्ञान ,उपलब्धि,
बुद्धि, तथा
प्रत्यय – ये
सभी पद
पर्याय माने
जाते हैं।
आदरवश प्रशस्तपाद
ने इसमें
सूत्रकार की
सम्मति भी
सूचित होती
है---“आत्मा के
लिङ्ग-बोधक” सूत्र से
ही आत्मा
में ज्ञान
से प्रयत्न
पर्यन्त नौ
गुणों की
सिद्धि हो
जाती है।[28] न्याय मंजरीकार
के अनुसार
स्वरूपतः आत्मा
जड या
अचेतन है,
किन्तु इन्द्रिय
और विषय
का मन
के साथ
संयोग होने
पर आत्मा
में चैतन्य
की उद्भूति
हो जाती
है। यद्यपि
ज्ञान आत्मा
में समवेत
होकर रहता
है तथापि
वह उसका
सार्वकालिक नहीं
अपितु आगन्तुक
धर्म है।[29]
२-३) सुख-दुःख – व्योमवती
कार ने
सुख-दुःख के
लक्षण को
विवृत करते
हुए कहा
है कि
केवल दुःख
का अभाव
सुख नहीं
है तथा
केवल सुख
का अभाव
दुःख नहीं
है। अपितु
वे दोनों
भिन्न भिन्न
कारणों से
जन्य होते
हैं उनकी
तीव्र , तीव्रतर आदिरूप से
प्रतीति होती
है।[30] अन्य शब्दों
में आत्मा ज्ञानवान् , सुखवान्, दुःखवान् है।
४)इच्छा- इच्छा भी
आत्मा में
ही रहने
वाला विशेष
गुण है,
अप्राप्त की
कामना ही
इच्छा है
– ऐसी प्रशस्तपाद
की उक्ति
है।
५)द्वेष – प्रशस्तपादभाष्यानुसार यह वह
भावना है
जिससे व्यक्ति
स्वयं को
जलता हुआ
सा अनुभव
करता है।
६)प्रयत्न – यह भी
आत्मा में
आश्रित होकर
रहने वाला
गुण है।
यह दो
प्रकार का
होता है
– जीवनपूर्वक तथा
इच्छाद्वेषपूर्वक।[31]
७-८)
धर्म-अधर्म - एक आत्मा के
धर्म-अधर्म से दूसरे
को सुख-दुख का
अनुभव नहीं
हो सकता,
इसलिए यहीं
सिद्ध होता
है कि
धर्म- अधर्म भी आत्मा
के विशेष
गुण हैं।
व्योमवतीकार ने
भी कहा
है कि
यावदात्मनि धर्माधर्मौ
तावदायुः शरीरमीन्द्रियाणि विषयाश्चेति। तथा क्षीयन्ते
चास्य कर्माणि
इति।
९)
संस्कार – प्रशस्तपादभाष्य का कथन है
कि महर्षि
कणाद् ने
संस्कार को
स्मृति का
कारण माना
है
, अतः आत्मा
में संस्कार
नामक गुण
भी जनना
चाहिए।
१०)
संख्या- वैशेषिक
दर्शनानुसार आत्मा
एक द्रव्य
है,
अतः संख्या
गुण का
होना सम्भव
है।
११)
परिमाण- आत्मा
आकाश के
समान सम्पूर्ण
मूर्तद्रव्यों में
संयुक्त है।अतः
आत्मा विभु
है।[32] प्रशस्तपाद ने
भी सूत्रकार
के उक्त
वचन से
ही आत्मा
का परममहत्
परिमाण स्वीकार किया है।[33]किरणावलीकार ने
भी आत्मा
में विभु
परिमाण माना
है।
आत्मा न
तो अनुपरिमाण
है,
न मध्यमपरिमाण; वह विभु
है ।
अन्नम्भट्ट ने
भी इसी
युक्ति से
आत्मा में
परममहत् परिमाण
की सिद्धि
की है
कि
– यदि आत्मा
को अणुपरिमाण
माना जाये,
तो अनित्य
भी मानना
होगा और
फिर
“कृतनाश” एवं “अकृताभ्यागम” दोष
होंगे, अतः यही सिद्ध
होता है
कि आत्मा
नित्य एवं
विभु है।[34]
१२)
पृथक्त्व – प्रशस्तपाद
का कथन
है कि
,चूंकि आत्मा
में संख्या
गुण है,
इसीलिए उसमें
पृथक्त्व भी
है।
१३)
संयोग – सुखदुःख
संयोग से
उत्पन्न होते
हैं,
अतः आत्मा
में संयोग
गुण भी
सिद्ध ही
है।
१४)
विभाग – संयोग गुण का
नाशक विभाग
है,
अतः संयोग
के सिद्ध
हो जाने
से ही
आत्मा की
सिद्धि हो
जाती है।
निष्कर्ष -
इसप्रकार यदि
सूक्ष्म अन्वीक्षण
किया जाये
तो प्रतीत
होगा कि
वैशेषिक दर्शन
से पूर्व
किसी भी
दर्शन सम्प्रदाय
ने आत्मा
को चेतन
व पृथक् द्रव्य ही
नहीं माना
था अतः
यद्यपि सिद्धान्ती
ने आत्मा
को पृथिवी
,जल आदि
भूतत्त्वों के
साथ द्रव्य
पदार्थ में
रखा है
किन्तु इसका
यह अभिप्राय
कदापि नहीं
कि वे
आत्मा को
जड तत्त्व
मानते हैं
क्योंकि सब
जड तत्त्वों
क प्रतिषेध करके चैतन्य
गुण के
आश्रय रूप
में ही
तो उन्होंने
आत्मा की
सिद्धि की
है। इस
दृष्टि से
यह कथन
बडा ही
महत्त्वपूर्ण है
कि व्यावहारिक
दृष्टि से
उस परमतत्त्व
के तीन
रूप हैं
– सत्
, चित् व
आनन्द। अतः
आत्मा सत्
है केवल
यही न्याय-वैशिषिक की
आत्मा के
सम्बन्ध में
महत्त्वपूर्ण स्थापना
है।
Ø परमात्मा
अथवा ईश्वर
–
मनीषीगण
जिसकी उपासना
को स्वर्ग
एवं अपवर्ग
का मार्ग
मानते हैं, अब उसी परमात्मा
का निरूपण
अभिप्रेत है।[35]वैशेषिक सूत्रों
के भाष्यकार
प्रशस्तपाद ने
यद्यपि आत्म
द्रव्य के
वर्णन के
समय तो
परमात्मा का
निर्देश नहीं
किया किन्तु
वे निस्सन्देह
आस्तिक हैं
और ईश्वर
स्तुति से
ही अपने
भाष्य का
प्रारम्भ करते
हैं तथा
धर्म की
व्याख्या भी
“ईश्वरचोदनाभिव्यक्त धर्म”[36] कहकर ही
करते हैं।
व्योमशिवाचार्य एवं
श्रीधराचार्य ने
अपनी कृतियों
में विस्तारपूर्वक
ईश्वर की
सिद्धि एवं
स्वरूप पर
विचार किया
है। व्योमशिवाचार्य ने जगत् की
उत्पत्ति में
सक्रिय कारणों
का त्रिविध
विभाजन किया
है
–
अ) निमित्तकारण – महेश्वर की इच्छा।
आ)
असमवायिकारण – जीवात्माओं व परमाणुओं के मध्य संयोग
Ø ईश्वर की
सिद्धि : उदयनाचार्य के अनुसार –
आगम
तथा अनुमान
– ये दोनों
प्रमाण ही
परमात्मा के
अस्तित्व की
सिद्धि करा
सकते हैं,
किन्तु इनमें
से भी
आगमप्रमाण बौद्धों
जैसे अनीश्वरवादियों को मान्य नहीं
है,
अतः उदयनाचार्य
तथा अन्य
वैशेषिक दार्शनिकों
ने भी
ईश्वर की
सिद्धि के
लिए अनेक
अनुमान ही
प्रमाण रूप
में प्रस्तुत
किये हैं।
अतः इनका
विवेचन निम्नवत्
हैं-
१)
अलौकिकस्य परलोकसाधनस्याभावात् – यह
पहली शङ्का
चर्वाक की
तरफ से
है। इस
शङ्का में
तीन अन्य
विप्रतिपत्तियां समाविष्ट
हैं
–
साधनस्याभावात् =संसार
में कोई
किसी का
कारण नहीं
है
परलोकस्याभावात् = परलोक
नहीं है
अलौकिकस्याभवात् = अलौकिक
अदृष्ट जैसी
कोई चीज
नहीं है।
चार्वाक
की इन
विप्रतिपत्तियों का
निराकरण उदयनाचार्य
ने धर्माधर्मरूप
अदृष्ट की
सिद्धि द्वारा
ही कर
दिया है
चूंकि अदृष्ट
की सिद्धि
हो जाने
से उसके
नियामकरूप में
ईश्वर की
भी सिद्धि
हो जाती
है।
२)
अन्यथापि परलोकसाधनानुष्ठानसंभवात् – मीमांसक की
ओर से
यह उक्ति
उठाई गयी
है कि
ईश्वर के
बिना भी
परलोक-साधक हो सकने
से,
ईश्वर को
मानने की
कोई आवश्यकता
नहीं हैं।
इस शङ्का
का समाधान
उदयनाचार्य ने
इसप्रकार किया
है कि
प्रमा के
परतन्त्र होने
से
, सृष्टि का
प्रलय होने
से और
उस सर्वज्ञ
ईश्वर से
भिन्न किसी
अन्य में
विश्वास न
होने से;
ईश्वर को
मानने के
अतिरिक्त और
कोई मार्ग
सम्भव नहीं
है।
३)
तदभाववेदकप्रमाणसद्भावात् – बौद्ध पूर्वपक्षियों
की ओर
से तृतीय
आशङ्का प्रस्तुत
की गयी
है कि
उस ईश्वर
के अभावसाधक
प्रमाणों के
विद्यमान होने
से भी
ईश्वर का
अभाव सिद्ध
हो गया
है।
इसपर उदयनाचार्य का
कथन है
कि प्रत्यक्ष
के अयोग्य
में योग्यानुलब्धि
कहां सिद्ध
होता है?
अतः अनुपलब्धिमात्र से ईश्वर का
अभाव सिद्ध
नहीं हो
सकता है।
४)
सत्वेऽपि तस्याप्रमाणत्वात् – जैनियों
की यह
आशङ्का है
कि ईश्वर
के होने
पर भी
,उसके अप्रमाणभूत
होने से, उसकी सिद्धि नहीं
हो सकती।
इसपर उदयनाचार्य का
कथन है
कि अव्याप्ति
और अतिव्याप्ति
होने से
अगृहीतग्राहित्व प्रमा
का लक्षण
नहीं है,
अपितु ज्ञानान्तरापेक्ष को (यथार्थानुभव) को
ही प्रमा
कहते हैं।
५)
तत्साधकप्रमाणाभावात् – साङ्ख की
ओर से
यह आशङ्का
है कि
ईश्वर के
साधकप्रमाणों का
सद्भाव न
होने से
ईश्वर नहीं
है।
इसपर उदयनाचार्य ने
आठ युक्तियां
प्रस्तुत् की
है। अतः
उनका वर्णन
अभीष्ट हैं-
कार्ययोजनधृत्यादेः पदात् प्रत्ययतः श्रुतेः।
कार्य – यदि संसार
एक कार्य
है तो
उसका कर्ता
भी अवश्य
होना चाहिए।
आयोजन – परमाणुओं को
जोडकर द्वयणु
बनाने के
लिए भी
एक बुद्धिमान्
कर्ता होना
चाहिए।
धृति – संसार को
धारण करने
वाली शक्ति
होनी चाहिए।
पारम्पारिक कार्यकुशलताएं – जो
परम्परा से
वस्त्र को
बुनने इत्यादि
की कलाएं
है,
उनका सर्वप्रथम
कोई आविष्कारक
होना चाहिए,
जिसने उन्हें
किसी से
सीखा न
हो।
प्रामाणिकता – वेदों
के ज्ञान
की प्रामाणिकता
हो।
श्रृति – स्वयं वेद
के वे
वाक्य जो
ईश्वर की
सत्ता बतलाते
हैं।
वाक्य – वें वेदवाक्य
हैं जिनका
कोई कर्ता
होना चाहिए।
संख्याबिशेष
– परमाणुओं में
द्वित्त्वादि संख्या
अपेक्षा-बुद्धि-विशेष-विषयत्व रूप है।
यह अपेक्षा
जिस चेतन
में होगी
वहीं ईश्वर
है।
Ø परमात्मा का लक्षण
व स्वरूप
-
ईश्वर जगत्
का निमित्तकारण है – न्यायदर्शन में
परमात्मा को
संसार का
निमित्त कारण
कहा गया
है तथा
जीव के
पूर्वकॄत्यों का
फल उसी
के अधीन
स्वीकार किया
गया है।[39]
सृष्टि-संहार-कर्त्ता महेश्वर है – प्रशस्तपादानुसार परमात्मा
का सबसे
बडा महेश्वर
है जिसकी
सिसृक्षा व
संजिहीर्षा ही
जगत् की
सृष्टि प्रलय
का हेतु
है।
ईश्वर जगत्
का अधिष्ठाता है – न्यायकन्दलीकार श्रीधराचार्यानुसार जड वस्तुओं की
प्रवृत्ति चेतन
अधिष्ठाता के
बिना संभव
नहीं है।
ईश्वर नित्य
ज्ञान का
आधार है
– मानमनोहरकार वादिवागीश्वरानुसार ईश्वर नित्य ज्ञान
का आधार
है। अन्नम्भट्ट
ने भी
यहीं स्वीकार
किया है।[40]
ईश्वर नित्य
एवम् सर्वज्ञ है – शंकरमिश्र के
अनुसार ईश्वर
जगत् का
कर्त्ता होने
के साथ
नित्य एवं
सर्वज्ञ भी
है। न्याय
मञ्जरीकार जयन्तभट्ट
के भी
यही विचार
है।
Ø परमात्मा के गुण
–
सामान्य गुण
–
परमात्मा द्रव्य पदार्थान्तर्गत आता
है। अतः उसमें संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, और विभाग यह सामान्य गुण पाये जाते
हैं। ईश्वर में इन पाँचों गुणों का सङ्केत सर्वप्रथम उद्योत्कराचार्य के न्यायवार्तिक
में मिलता है।[41]
विशेष गुण
– ईश्वर
में तीन विशेष गुण भी माने गये हैं- ज्ञान, इच्छा, प्रयत्न। अतः इन तीनों का वर्णन
यहाँ निम्नवत् हैं –
१) ज्ञान –
प्रशस्तपादभाष्य एवं वात्स्यायन दोनों
के अनुसार ईश्वर नित्य ज्ञान का समवायिकारण है। उद्योत्कराचार्य के अनुसार परमात्मा
का ज्ञान नित्य है तथा उसी के द्वारा उसे अतीत, अनागत एवं वर्तमान – सभी विषयों का
प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। इसीलिए ईश्वर में स्मॄति व संस्कार नहीं है तथा उसका ज्ञान
अनुमानजन्य वा आगमजन्य नहीं है।[42]वाचस्पतिमिश्र
ने और भी स्पष्ट कर दिया कि ईश्वरा का ज्ञान चारों में हैं, किसी प्रमाण से गम्य नहीं
है, वह इन्द्रियाश्रित भी नहीं है, अतः नित्य है।
२)
इच्छा
–
न्यायभाष्यकार ने ईश्वर के धर्म को उसके
सङ्कल्प के अधीन माना है।[43] प्रशस्तपाद
ने भी ईश्वर में सृष्टि एवं संहार कि प्रक्रिया को माना है। उद्योत्कराचार्य के अनुसार
ईश्वर में अदूषित एवं अबाधित ईच्छा है, जैसे सब विषयों में अव्याहत उसका ज्ञान है[44]
३)
प्रयत्न –
प्रयत्न का अर्थ है व्यापार। प्रयत्न
शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग वाचस्पतिमिश्र ने किया था।[45] उद्योत्कराचार्य
ने प्रयत्न शब्द का प्रयोग न कर “प्रवृत्तिस्वाभाविकं तत्ततत्त्वम्” से अप्रत्यक्ष
रूप से प्रकट कर दिया है।[46]
Ø ईश्वर की अन्य
विशेषतायें –
१) ईश्वर एक ही है – सर्वप्रथम उद्योतकराचार्य
ने यह मत प्रतिपादित किया है कि ईश्वर एक ही है। तदर्थ उन्होने जो युक्ति प्रयुक्त
की है, वह सर्वथा योगदर्शन में प्राप्त एकेश्वरवादी युक्ति के सदृश ही है – “अथानेकत्वे
किं बाध्यते इत्येकस्मिन् वस्तूनि व्याहतकामयोरीश्वरयोः प्रवृत्तिर्न प्राप्नोति अथैकमीतर
अतोशेते, योऽतिशेते स ईश्वरः नेतरः इति। ”[47]
नैयायिकों के अनुसार यही सिद्धान्त समीचीन है कि इस जगत् का कर्त्ता ईश्वर ही है।
एक ईश्वर मानने पर उसकी सर्वव्यापकता एवं सर्वशक्तिमत्ता भी स्वतः ही सिद्ध हो जाती
है।
२) ईश्वर नित्य
मुक्त है – न्याय
वार्तिककार के अनुसार दुःखाभाव होने से वह ईश्वर बद्ध नहीं है तथा अबद्ध होने
से वह मुक्त भी नहीं कहा जा सकता है क्यों कि बन्धवान् पुरुष ही मुक्त होता है। श्रीधराचार्य
के अनुसार ईश्वर को नित्य मुक्त कहा जा सकता है जैसा कि योगसूत्रकार पतञ्जली ने भी
कहा है – क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टपुरुषविशेष ईश्वरः इति।
३) ईश्वर अष्टविध
ऐश्वर्यों का आश्रय है – न्यायभाष्यकार वात्स्यायन ने ईश्वर में अष्टविध ऐश्वर्यों
का अस्तित्त्व माना है –अणिमा, महिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व
तथा यथाकामवसायित्व।
Ø निष्कर्ष –
इसप्रकार न्याय-वैशेषिक
में ईश्वर का अस्तित्व इस जगत् के कर्त्ता के रूप में स्वीकार किया है। अतः यदि ईश्वर
का सृष्टि-रचना में प्रयोजन ज्ञात किया जाये तो इसके हमें अनेक कारण ज्ञात होंगे ।
यथा –करुणावश सृष्टि-रचना करना[48], प्राणियों
के भोगसम्पादनार्थ सृष्टि-रचना करना[49], स्वभाववश
सृष्टि-रचना करना[50]
इत्यादि। किन्तु यदि यह पूछा जाये कि फिर ईश्वर सृष्टि-संहार क्यों करता है? तब यह
उत्तर हमें मिलता है कि सृष्टि-संहार ईश्वर का स्वभाव ही है, उसमें उसकी कोई स्पृहा
नहीं है जैसे कि माण्डूक्यकारिका में कहा गया है –
भोगार्था सृष्टिरित्यन्ते क्रीडार्था
इति चापरे।
देवस्यैषा प्रभावोऽयं आप्तकमस्य का स्पृहा॥[51]
इसप्रकार
यह स्पष्ट होता है कि न्याय-वैशेषिक दोनों दर्शनों में जीवात्मा परमात्मा इन दोनों
भेदों के साथ आत्मा का स्वरूप बडे ही विस्तृत रूप में व्यक्त किया गया है।
Ø सन्दर्भ ग्रन्थ
सूची
१)
न्याय दर्शनम्, गौतम, भाष्यकार स्वामी दर्शनानन्द,
सार्वदेशिक आर्यप्रतिनिधि सभा,
नई
दिल्ली-०२,द्वितीय संस्करण-२००३
२)
वैशेषिक दर्शनम्, कणाद, भाष्यकार स्वामी दर्शनानन्द,
सार्वदेशिक आर्यप्रतिनिधि सभा,
नई
दिल्ली-०२,द्वितीय संस्करण-२००३
३)
तर्कभाषा, केशवमिश्र, व्या.-गजानन शास्त्री मुसलगाँवकर,
चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, पुनर्मुद्रितसंस्करण-२००९
४)
तर्कसङ्ग्रह, अन्नम्भट्ट, व्या.-डा. दयानन्द भार्गव,
मोतीलाल बनारसीदास प्रकाशन,
नई दिल्ली, ११ वाँ संस्करण।
५)
प्रशस्तपादभाष्यम्, प्रशस्तपाद, सं. नारायणमिश्र,
काशी संस्कृतग्रन्थमाला,
वाराणसी, १२ वाँ संस्करण।
६)
कारिकावली, विश्वनाथपञ्चानन, व्या. श्री सूर्यनारायणशुक्ल,
चौखम्बा संस्कॄत सीरीज, वाराणसी,सं.-२००८।
७)
किरणावली, उदयनाचार्य, सं. विन्ध्येश्वरीप्रसाद द्विवेदी,
बनारस संस्कृत सीरीज, सं. २५, १९७३।
८)
न्यायकन्दली, श्रीधराचार्य, सं. दुर्गाधर झा, गंगानाथ
झा ग्रन्थमाला, सं – १०, वाराणसी,
९)
न्यायसिद्धान्तमुक्तावली, विश्वनाथ, सं. हरिराम शुक्ल,
काशी संस्कॄत सीरीज, ६, वाराणसी, १९७२।
१०)
सर्वदर्शन सङ्ग्रह, सम्पा. वासुदेवशास्त्री अभ्यंकर,
पूना, द्वितीय संस्करण- १९५१।
Ø सहायक ग्रन्थ –
वैशेषिकदर्शन में पदार्थ निरूपण, श्रीमती शशिप्रभा कुमार, दिल्ली
विश्वविद्यालय, दिल्ली-१९९३।
सुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नश्चात्मनो लिङ्गानि॥ वै.
सू.।(न्याय सूत्र १.१.१०)
यदुपास्तिमसावत्र परमात्मा
निरुप्यते॥ न्यायकुसुमस्तवक १, कारिका १॥
[37] तथाहि महेश्वरेच्छा निमित्तकारणमात्मनामणुभिः संयोगाश्चासमवायिकारणमणवस्तु समवायिन इत्यणुषु कर्माण्युत्पद्यन्ते। व्योमवती
[41] तत्र हि नित्या बुद्धिः, संड्ख्यादयश्च सामान्यगुणाः
षड्गुणाः आकाशवदीश्वरः इति।
[42] न च बुद्धिमत्तया विना ईश्वरस्य, जगदुत्पादो
घटते इति।सा बुद्धिः सर्वार्थातीतानागतवर्तमानविषया प्रत्यक्षा नानुमानिकी नागमिकी।
न्यायवार्तिक ।(न्यायसूत्र-४.१.२१)
[43] सङ्कल्पानुविषयी चास्य धर्मः। न्यायभाष्य(न्याय
सूत्र्- ४.१.२१)
[44] इच्छा
तु विद्यतेऽक्लिष्टाऽव्याहता सर्वार्थेषु यथा बुद्धिरिति। न्यायवार्तिक (न्यायसूत्र्
– ४.१.२१)
[45] न्यायवार्तिक तात्पर्यटीका
[46] न्यायवार्तिक
[47] न्यायवार्तिक
[48] आप्तकल्पश्चायम्। यथापिताऽपत्यानाम्,तथा पितृभूत
ईश्वरो भूतानाम्। न्यायसूत्र- ४.१.२१
[49] प्रशस्तपादभाष्य।
[50] किमर्थंतर्हि करोतितत्स्वाभाव्यात् प्रवर्तत
इत्यदुष्टम्। न्याय वार्तिक
[51] माण्डुक्यकारिका- १.९