Wednesday, 15 January 2014

वैशेषिकदर्शनम् - परिचय

वैशेषिकदर्शनम्(६००-५००ई.पू.)-   
                     “कणादेन तु सम्प्रोक्तं शास्त्रं वैशेषिकं महत्”।[1]
          भारतीय दर्शन-परम्परा में वैशेषिक दर्शन का अन्यतम स्थान है। सभी दर्शनों की अपेक्षा इस दर्शन को प्राचीन माना गया है। यह दर्शन सभी दर्शनों का उपकारक है, जैसे कहा गया है- “काणादं पाणिनीयञ्च सर्वशास्त्रोपकारकम्”॥ इस दर्शन के प्रवर्त्तक महर्षि कणाद है। इस दर्शन में विविध विश्व के दृश्यमान तत्त्वों के साधर्म्य एवं वैधर्म्यपूर्वक तत्त्वज्ञान को साध्य बताया गया है। द्रव्य, गुण, कर्म इत्यादि का अत्यन्त सुव्यवस्थित रूप तथा इनका साधर्म्य एवं वैधर्म्यपूर्वक विशिष्ट वर्णन यहाँ प्राप्त होता है। बौद्धग्रन्थों से ज्ञात होता है कि जैन-बौद्धदर्शनों के उद्भव से पूर्व भी यह दर्शन सुप्रचलित था। जैनतत्त्वमीमांसा का आधार तो वैशेषिक दर्शन प्रतिपादित पदार्थों पर आश्रित प्रतीत होता है। इस दर्शन चिन्तन का न्याय-दर्शन चिन्तन से विशेष भेद दिखाई नहीं देता है।
          महर्षि कणाद ने द्रव्यादि छः पदार्थों के तत्त्वज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति बतलाई है- धर्मविशेषप्रसूताद् द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां पदार्थानां साधर्म्यवैधर्म्याभ्यां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसम्।[2] इस दर्शन की प्रारम्भिक अवस्था में लोक में स्थित पदार्थों को छः भागों में विभक्त किया, परन्तु परवर्ती आचार्यों ने सप्त पदार्थ ही  स्वीकार किये हैं। इस दर्शन का मुख्य प्रतिपाद्य निःश्रेयससिद्धि (मोक्ष) है और ‘मोक्ष’ पदार्थज्ञान से होता है।
‘वैशेषिक’ नामकरण-
         वैशेषिकदर्शन के अनेक नाम उपलब्ध होते हैं-
१.     काश्यप दर्शन-  महर्षि कणाद के कश्यप गोत्रोत्पन्न होने के कारण इस दर्शन को काश्यप-दर्शन कहते हैं।[3]
२.     औलूक्यदर्शन- पुराणों के अनुसार उलूकरूपधारी महेश्वर के द्वारा यह दर्शन प्रोक्त होने के कारण इसे   औलूक्यदर्शन कहते हैं।[4] कुछ अन्य लोग कणाद को उलूक ऋषि का पुत्र मानते हैं- ‘उलूकस्य अपत्यं पुमाँन् औलूक्यः, औलूक्येन प्रोक्तम् औलूक्यम्’। अतः इस दर्शन को औलूक्य (उलूक ऋषि के पुत्र का) दर्शन भी कहते हैं।[5] कुछ अन्य जन ‘उलूक’ को महर्षि कणाद की उपाधि के रूप में स्वीकार करते हैं।[6] 
३.     काणाददर्शन- महर्षि कणाद क्षेत्र में गिरे हुए अन्न-कणों को चुनकर उन्हें ही खाकर अपनी जीविका चलाते थे, अतः उन्हें ‘कणाद’ या ‘कणभक्ष’ कहते हैं और कणाद के द्वारा  प्रोक्त होने के कारण इस शास्त्र को ‘काणाद-दर्शन’ भी कहते हैं।[7]
४.     पदार्थशास्त्र- पदार्थों के साधर्म्य वैधर्म्य का वर्णन करने के कारण इसे ‘पदार्थशास्त्र’ भी कहते हैं।[8]
५.     पैलुकदर्शन – नैयायिक ‘पीठरपाकवाद’ को स्वीकार करते हैं[9], परन्तु वैशेषिक दर्शन में ‘पीलुपाकवाद’ को स्वीकार किया गया है, अतः ‘पैलुकदर्शन’ भी कहते हैं।
६.    पाशुपतदर्शन- पशुपति के भक्त होने के कारण इसे ‘पाशुपत-दर्शन’ भी कहते हैं[10]
७.    वैशेषिकदर्शन- इस दर्शन के ‘वैशेषिक’ नामकरण के बहुत सारे तर्क विद्वानों के द्वारा दिये जाते हैं। कुछ विद्वानों का कहना है कि अन्य शास्त्रों से, विशेषतया सांख्य से, विशेषता होने के कारण इसका नाम ‘वैशेषिक’ पड़ा। दूसरे कहते हैं कि गौतम द्वारा प्रतिपादित १६ पदार्थों में धर्म-धर्मी का स्पष्ट विवेचन न होने के कारण उनका परस्पर साधर्म्य और वैधर्म्य दिखलाते हुए सुव्यवस्थित रूप से द्रव्य, गुण आदि ७ पदार्थों का वर्णन किया गया। इस विशेष उद्देश्य से आगे बढ़ने के कारण इस दर्शन का नाम ‘वैशेषिक’ पड़ा। किन्तु ये सारे कारण कपोल-कल्पित है। सच तो यह है कि ‘विशेष’ नामक पदार्थ भेद पर अधिक जोर देकर उसका समीचीन विवेचन करने के कारण ही इसे ‘वैशेषिक दर्शन’ कहते हैं।[11]
उपरोक्त सभी नामों में से इस शास्त्र के लिये ‘वैशेषिक’ नाम ही सर्वप्रसिद्ध है। ‘वैशेषिक’ यह नामकरण इस शास्त्र के लिये कब से प्रयुक्त है, इस सन्दर्भ में कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। काणादसूत्र में ‘वैशेषिक’ पद का प्रयोग प्राप्त होता है[12], जिसका अर्थ होता है- ‘भेदकारक वैशिष्ट्य’ है। आंग्लभाषा में भी ‘वैशेषिक’ शब्द के लिये Differentialist (भेदवादी) इस पद का प्रयोग भी इस सिद्धान्त को अधिक स्पष्ट करता है। पाणिनि के नियमानुसार यह नाम ‘विशेष’ शब्द से बना है तथा इसका अर्थ ‘विशेषपरक ग्रन्थ’ है- ‘विशेषपदार्थमधिकृत्य कृतो ग्रन्थः वैशेषिकः’[13]
कोश ग्रन्थों में भी ‘विशेष’ इस पद के बहुत से अर्थ मिलते है, यथा- भेद, प्रकार, वैशिष्ट्य एवं उत्कर्ष आदि।[14] इसीलिए विद्वानों ने वैशेषिक नामकरण के अनेक आधार बताये हैं। किन्तु सर्वाधिक प्रसिद्ध मत यही है कि इस दर्शन का नाम वैशेषिक इसीलिए पड़ा, क्योंकि इसमें ‘विशेष’ नाम के एक नवीन पदार्थ की कल्पना की गई है, जो नित्य पदार्थों एवं अनित्य पदार्थों के अन्तिम तत्त्व परमाणुओं में रहता है और उनको एक-दूसरे से व्यावृत्त करता है।[15][16]  अतः यह नामधेयत्वपक्ष सर्वग्राह्य है। न्यायकोश में भी यही पक्ष स्वीकार किया गया है।[17]
१. वैशेषिकसूत्र- महर्षि कणाद द्वारा रचित वैशेषिकसूत्र १० अध्याय में विभक्त हैं। वहाँ प्रत्येक अध्याय में आह्निकद्वय के विभाग से २० आह्निक और प्रायशः ३७० सूत्र हैं। इन सूत्रों में द्रव्यादि छः पदार्थों का साधर्म्य-वैधर्म्यपूर्वक वर्णन किया गया है, वैशेषिक दर्शन की विकास परम्परा में यहाँ ‘सप्तपदार्थवाद’ को स्वीकार करते हुए उनका वर्णन किया गया है।[18]
वैशेषिकसूत्राणां विषयवस्तु-
वैशेषिकसूत्रान्तर्गते किं विवेचितमिति स्पष्टयता माधवाचार्येण सर्वदर्शनसंग्रहस्य औलुक्यदर्शने विषयवस्तु निरूप्यते- तत्राह्निकद्वयात्मके प्रथमेऽध्याये समवायसम्बन्धेन युक्तानां द्रव्यगुणकर्मसामान्य- विशेषपदार्थानां वर्णनम्। तत्रापि प्रथमाह्निके जातियुक्तानां द्रव्यगुणकर्मणां विवेचनम्, द्वितीयाह्निके जातिविशेषयोर्वर्णनम्। द्वितीयेऽध्याये द्रव्यनिरूपणम्। तत्रापि प्रथमाह्निके भूतानां पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशानां विवेचनम्, द्वितीयाह्निके दिक्कालप्रतिपादनम्। तृतीयेऽध्याये आत्मान्तःकरणलक्षणम्। तत्राप्यात्मलक्षणं प्रथमे, द्वितीयेऽन्तःकरणलक्षणम्। चतुर्थेऽध्याये शरीरस्य तदुपयोगितत्त्वानां परमाणुकारणतादीनाञ्च वर्णनम्। तत्रापि प्रथमे तदुपयोगिविवेचनम्, द्वितीये शरीरस्य विवेचनम्। पञ्चमे कर्मप्रतिपादनम्। तत्रापि शरीरसम्बन्धि- कर्मविवेचनं प्रथमे, द्वितीये मानसकर्मचिन्तनम्। षष्ठे श्रुतिप्रतिपादित-धर्माणां निरूपणम्। तत्रापि प्रथमे दानप्रतिग्रहधर्मविवेकः, द्वितीये चातुराश्रम्योचितधर्मस्य निरूपणम्। सप्तमे गुणसमवायप्रतिपादनम्। तत्रापि प्रथमे बुद्धिनिरपेक्षगुणप्रतिपादनम्, द्वितीये तत्सापेक्षगुणप्रतिपादनं समवायप्रतिपादनं च। अष्टमे निर्विकल्पकसविकल्पकप्रत्यक्षप्रमाण-चिन्तनम्। नवमेऽध्याये बुद्धिविशेषप्रतिपादनम्। दशमेऽध्यायेऽनुमानभेद- प्रतिपादनम्।२२
      अत्रेदमवधेयं यत् नवमे दशमे चाध्याये माधवाचार्यस्य भ्रमकारणं नावगम्यते, यतोहि महर्षिकणादेन नवमेऽध्याये अतीन्द्रियसंयोगादिभिर्जन्यस्य प्रत्यक्षस्य निरूपणमनुमानवर्णनञ्च कृतम्। दशमे सुखदुःखादीनामात्मनः विशेषगुणानाम् एवञ्च त्रिविधकारणानामपि प्रतिपादनं कृतम्।                                                                                                    एवं प्रकारेण वैशेषिकसूत्राणां विषयवस्तु माधवाचार्येण सर्वदर्शनस्यौलूक्यदर्शने प्रतिपादितम्।२३
न्यायवैशेषिकसूत्रयोः कालविषये विदुषां मतैक्यं नास्ति, परन्तु निष्कर्षरूपेण न्यायसूत्रस्य पञ्चाशताधिकैकशतम्(१५०ई.पू.) एवञ्च वैशेषिकसूत्रस्य समयः ईसापूर्वं षष्ठी-पञ्चमी वा शताब्दी स्वीकृता।
   

         
पदार्थधर्मसंग्रह की आठ टीकाएँ उल्लिखित हैं, उनमें से चार प्राचीन हैं-
                पदार्थधर्मसङ्ग्रह की टीकाएँ                              व्याख्याकार
१.     व्योमवती                                                      व्योमशिवाचार्य।
२.     न्यायकदली                                                    श्रीधराचार्य।
३.     किरणावली                                                     उदयनाचार्य।
४.     लीलावती (अनुपलब्ध)                                     श्रीवत्साचार्य।    
   नवीन भी चार टीकाएँ-
१.     सूक्ति                                                   जगदीश तर्कालङ्कार।
२.     सेतु                                                     श्रीपद्मनाभ मिश्र।
३.     भाष्यनिकष (अनुपलब्ध)                                   मल्लिनाथ।
४.     कणादरहस्य                                          शंकर मिश्र।
    
प्राचीनव्याख्या                                          व्याख्याकार
१.     श्वाक्यभाष्य                                                       ………….।
२.     रावणभाष्य                                                        रावण।
३.     आत्रेयभाष्य                                                       आत्रेयाचार्य।
४.     कटन्दीवृत्ति                                                        रावण।
५.     भारद्वाजवृत्ति                                                     …………।
६.     कणादसूत्रनिबन्ध                                                            भट्टवादीन्द्र।
७.     उपस्कारभाष्य                                                    शङ्करमिश्र।
८.     अज्ञातकर्तृकप्राचीनव्याख्या (मिथिलावृत्ति)              …………।
९.     चन्द्रानन्दवृत्ति                                                    चन्द्रानन्द।                                                                                                    
नवीनव्याख्या                             व्याख्याकार
१०.विवृति                                                              जयनारायण तर्कपञ्चानन।
११.रसायनभाष्य                                                      श्रीवीर राघवाचार्य।
१२.वैशेषिकसूत्र ‘वैदिकवृत्ति’                                     स्वामी हरिप्रसाद।
१३.ब्रह्ममुनिभाष्य                                                    स्वामी ब्रह्ममुनि परिव्राजक।
१४.वेदभास्करभाष्य                                                 काशीनाथ शर्मा।
१५.‘सुगमा’ वैशेषिकसूत्रवृत्ति                                     देशिक-तिरुमलै ताताचार्य।
१६.विद्योदयभाष्य                                                   आचार्य उदयवीर शास्त्री।



[1]
[2] वैशेषिकसूत्र- १/१/४।      
[3]कश्यपात्मजः कणादोऽब्रवीत्”।(किरणावली , पृ.२९१) “Kanada is again called Kashyapa, son of descendant of the sage Kashyapa’’ . (Origin and development of the Vaishesika system, Page N.- ३)
[4] “कणादस्य मुनेः पुरः शिवेनोलूकरूपेण मतमेतत्प्रकाशितम्। तत औलूक्यं प्रोच्यते”।(षड्दर्शनसमुच्चय, वैशेषिकमत, पृ.-४०६)           
[5] सर्वदर्शनसंग्रह, औलूक्यदर्शन की हिन्दी व्याख्या- प्रो. उमाशंकर शर्मा ‘ऋषि’,  पृ. ३३७। 
[6]
[7] “मुनिविशेषस्य कापोतीं वृत्तिमनुष्ठितवतो रथ्यानिपतितांस्तण्डुलकणानादायादाय कृताहारस्याहारनिमित्तात्कणाद इति संज्ञा अजनि। कणादस्य शिष्यत्वेन वैशेषिकाः काणादा भण्यन्ते। आचार्यस्य च ‘प्रागभिधानीपरिकर’ इति नाम समाम्नायते”। (वही, वैशेषिकमत, पृ.-४०६)
[8] वैशेषिकसूत्र- १/१/४। ३७१।
[9]पिठरपाकप्रक्रिया नैयायिकधीसंमता”। सर्वदर्शनसङ्ग्रह, औलूक्यदर्शन, पृ. ३७०।       
[10]  “पशुपतिभक्तत्वेन पाशुपतं चोच्यते”।(षड्दर्शनसमुच्चय, वैशेषिकमत, पृ.-४०६)
[11] सर्वदर्शनसंग्रह, औलूक्यदर्शन की हिन्दी व्याख्या- प्रो. उमाशंकर शर्मा ‘ऋषि’,  पृ. ३३७। 
[12] संयुक्तसमवायादग्नेर्वैशेषिकम्”॥ (वै.सू., १०/२७)    
[13] “अधिकृत्य कृत्ये ग्रन्थे”। (पा. अ.-४/३८७)          
[14] प्रभेदः। प्रकारः। व्यक्तिः। अतिशयते। (शब्दकल्पद्रुम, भागः४, पृ.४३६)       
[15] “नित्यद्रव्यवृत्तयो विशेषास्त्वनन्ता एव”।(तर्कसङ्ग्रह, पृ.-३)।
[16] वैशेषिक दर्शन में पदार्थ-निरूपण, पृ. ६।
[17] “शास्त्ररूपार्थे वैशेषिकशब्दव्युत्पत्तिः। विशेषं पदार्थभेदमधिकृत्य कृतो ग्रन्थः”। (न्यायकोश, पृ.-८१२)                      
[18] “द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायाभावाः सप्त पदार्थाः”। (तर्कसङ्ग्रह, पृ.-३)।