Saturday, 21 January 2017

नारी जाति के उन्नायक महर्षि दयानन्द



महाभारत काल से पूर्व हमारा देश भारतवर्ष शिक्षा, संस्कृति और सयता की दृष्टि से पूर्ण विकसित था। भारतीय संस्कृति और सयता विश्व की प्राचीनतम और सर्वोन्नत सयता-संस्कृति मानी जाती है। इसीलिए समस्त विश्व इस देश को जगद्गुरु मानता था। मनुमहाराज ने भी घोषणा की थी- एतद्देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः। स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।। – मनु. (2.20) उस समय नारी की दशा भी समानित, प्रतिष्ठित ओर स्पृहणीय थी। लगभग पच्चीस मन्त्र द्रष्ट्री ऋषिकाओं का वैदिक साहित्य में उल्लेख मिलता है। गार्गी, मैत्रेयी, सीता, अनसूया, सावित्री और मदालसा आदि प्रमुख उदाहरण नारी की उन्नत अवस्था के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। महाभारत काल से इस देश का सर्वाङ्गीण पतन प्रारभ हो गया था और उसके साथ ही नारी की दशा भी उत्तरोत्तर निम्न होती चली गयी। हमारी पौराणिक संकीर्ण विचारधारा ने इस पतन को और अधिक गतिशील कर दिया। वेदों और उपनिषदों के उद्भट विद्वान् स्वामी शंकराचार्य ने वेदोद्धार के बहुत प्रशंसनीय कार्य किये। परन्तु नारी के महत्व को उन्होंने भी नहीं समझा और उसे ‘नरक का द्वार’ जैसा निन्दनीय विशेषण दे डाला। इतना ही नहीं ‘स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम्’ कहकर नारी को धार्मिक शिक्षा के अधिकार से भी वंचित कर दिया । इसी परपरा में उत्तर मध्यकाल में आकर सन्त तुलसीदास ने – ‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी’ कहकर नारी के समान को बहुत बड़ा आघात पहुँचाया। इन सबका परिणाम यह निकला कि सामान्य समाज में नारी को पैर की जूती समझा जाने लगा। जिस समय इस भारत भू पर महर्षि दयानन्द का आविर्भाव हुआ उस समय नारी की अवस्था अत्यन्त दयनीय एवं शोचनीय थी। उन्होंने यह भलिभाँति अनुभव कर लिया था कि स्त्री का उत्थान हुए बिना समाज अथवा राष्ट्र का उद्धार सभव नहीं, क्योंकि स्त्री भी पुरुष की भाँति समाज रूपी गाड़ी का एक पहिया है महर्षि दयानन्द पहले समाज सुधारक थे जिन्होंने नारी-उत्थान की क्रान्ति को जन्म दिया। महर्षि ने नारी के  उद्धार के लिए अनेक प्रयत्न किए जो यहाँ संक्षेप में प्रस्तुत है- स्त्री-शिक्षाः- स्वामी दयानन्द ने इस रहस्य को उद्घाटित किया कि शिक्षा के बिना व्यक्ति अधूरा है। नारी भी जब तक शिक्षित नहीं होगी तब तक जागरुक नहीं हो सकती, वह अपने अस्तित्व को, अपने महत्त्व को नहीं समझ सकती। अतः वेदों की विद्या जो ताले में बन्द थी देव दयानन्द ने उसकी कुञ्जी न केवल पुरुषों के लिए अपितु स्त्रियों के लिए भी सुलभ कराते हुए वेद का प्रमाण प्रस्तुत किया- यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेयः। ब्रह्म राजन्यायां शूद्राय, चार्याय च स्वाय चारणायच।। – यजुः अ. 26-2 अर्थात् परमात्मा ने वेदों का प्रकाश मानव मात्र के लिए किया है। स्वामी जी ने सबके लिए शिक्षा की अनिवार्यता सिद्ध करते हुए सत्यार्थ-प्रकाश के तृतीय-समुल्लास में लिखा है- ‘‘इसमें राजनियम और जातिनियम होना चाहिए कि पांचवे अथवा आठवें वर्ष से आगे कोई अपने लड़के और लड़कियों को घर में न रख सके पाठशाला में अवश्य भेज देवे, जो न भेजे वह दण्डनीय हो।’’ स्त्रियों को सभी प्रकार के ज्ञान की आवश्यकता पर बल देते हुए वे आगे लिखते हैं- ‘‘जैसे पुरुषों को व्याकरण, धर्म और अपने व्यवहार की विद्या न्यून से न्यून अवश्य पढ़नी चाहिए, वैसे स्त्रियों को भी व्याकरण, धर्म, वैद्यक, गणित, शिल्प-विद्या तो अवश्य ही सीखनी चाहिए।’’ स्वामी जी के उक्त कथन में उनकी इस भावना की अभिव्यक्ति है कि गृह-सबन्धी आय-व्यय क लिए गणित, सन्तान को सयक्  आचरण सिखाने के लिए धर्म, गृह के सभी प्राणियों के लिए पौष्टिक और स्वास्थ्यवर्धक भोजन-पान तथा रोगी के पथ्यापथ्य के हेतु वैद्यक, गृह-निर्माण तथा अन्य वस्त्र भूषणादि सबन्धी आवश्यकताओं के लिए शिल्प व कलाओं का ज्ञान प्राप्त करना प्रत्येक नारी के लिए उचित है। स्त्री और धर्म :- महर्षि दयानन्द धर्म के संबंध में भी स्त्रियों को पुरुषों के समान ही धर्म-ग्रन्थों के पठन-पाठन, धार्मिक क्रियाओं के सपादन और गायत्री मन्त्र जाप आदि तथा अग्निहोत्रादि की अधिकारिणी मानते थे। महर्षि के वैदिक सिद्धान्त के अनुसार कोई भी धार्मिक-अनुष्ठान पत्नी के बिना पूर्ण नहीं माना जाता । ‘इमं मन्त्रं पत्नी पठेत’ आदि श्रौतसूत्र में वर्णित यह वाक्य इसमें स्पष्ट प्रमाण हैं। वे नारी के धार्मिक कार्यों में पुरुषों की सहभागिनी होने के प्रबल समर्थक अवश्य थे किन्तु धार्मिक कार्यों की आड़ में गृहस्थ धर्म की उपेक्षा उन्हें अग्राह्म थी। दोनों प्रकार के कर्त्तव्यों के मध्य एक सामञ्जस्य सेतु आवश्यक है। स्वामी जी की प्रेरणा के कारण ही आज आर्य समाज साधारण प्रशिक्षण के बाद महिलाओं को भी पौरोहित्य की अनुमति देता है। वैदिक परपरा में स्त्रियों को ब्रह्मा पद पर आसीन करने का उल्लेख भी मिलता है। स्त्री और गृहस्थ धर्मः– महर्षि दयानन्द गृहाश्रम को विषयभोगों की पूर्ति का केन्द्र न मानकर जीवन के समस्त कर्त्तव्यों, लोकमंगल और पवित्रता का एक माध्यम मानते थे। उनकी ‘संस्कार विधि’ नामक पुस्तक के विवाह प्रकरण में उद्धृत मन्त्र दापत्य जीवन के उदान्त उद्देश्य और मर्यादा का परिचायक है- समञ्जन्तु विश्वे देवाः समापो हृदयानि नौ। सं मातरिश्वा संघाता समु देष्ट्री दधातु नौ। – ऋग्वेद 20-85-47 अर्थात् दपति इस शुभ संकल्प के साथ वैवाहिक जीवन में प्रवेश करते हैं कि उन दोनों का प्रत्येक शुभ कार्य में विचारों का पूर्ण सामञ्जस्य इस प्रकार होगा जैसे दो पात्रों का जल एक पात्र में मिलकर एकरूप हो जाता है। पुनर्विवाहः– विधवाओं की दीनदशा देखकर ऋषि का हृदय रो उठा था। बाल-विवाह की कुप्रथा के कारण छोटी-छोटी कन्याएँ सारा जीवन वैधव्य से अभिशप्त होकर नरक भोगने के लिए बाध्य थीं। ऋषि ने पुनर्विवाह की अनुमति देते हुए उपदेश मञ्जरी के बारहवें व्यायान में बलपूर्वक यह कहा था- ‘‘ईश्वर के समीप स्त्री-पुरुष बराबर हैं, क्योंकि वह न्यायकारी है उसमें पक्षपात का लेश नहीं है। जब पुरुषों को पुनर्विवाह की आज्ञा दी जावे तो स्त्रियों को दूसरे विवाह से क्यों रोका जावे।’’ महर्षि की इसी प्रेरणा से प्रेरित होकर आर्य समाज ने विधवा विवाह को समाज में प्रतिष्ठित कर दिया। पर्दा-प्रथा का विरोधः- इस कुरीति के उच्छेद के लिए महर्षि दयानन्द के समकालीन राजा राज मोहन राय भी बंगाल में प्रयत्नशील थे। परन्तु उन दोनों के  प्रयासों में पूर्व और पश्चिम का अन्तर था। राजा राममोहन राय पाश्चात्य सयता में रंगे थे और स्वामी दयानन्द के प्रयत्न भारतीय संस्कृति की सुदीर्घ परपरा के परिप्रेक्ष्य में किये जा रहे थे। अतः महर्षि दयानन्द पर्दा-प्रथा का विरोध और महिलाओं की पूर्ण स्वतन्त्रता का समर्थन करते हुए भी उनकी स्वेच्छाचारिता और उच्छ्रंखलता को स्वीकार नहीं करते थे। सती-प्रथा का विरोधः- स्वामी दयानन्द के आगमन के समय समाज के कई वर्गों में पति की मृत्यु होने पर जीवित पत्नी को पति की चिता में जला दिया जाता था। इस जघन्य, नृशंस और अमानवीय प्रथा का महर्षि ने प्रबल विरोध किया। उनके इस सुधार कार्य से प्रेरित होकर अंग्रेज सरकार ने भी इस कुप्रथा को मिटाने का प्रयास किया। वेश्यावृत्ति का विरोधः– भारतीय समाज के मस्तक पर लगे वेश्यावृत्ति के कलंक ने स्वामी दयानन्द का हृदय झकझोर दिया था। अशिक्षा, निर्धनता, वैघव्य और सामाजिक अत्याचारों से पीड़ित होकर अनचाहे अनेक नारियों को पेट पालने के लिए यह घृणित व्यवसाय अपनाने को विवश होना पड़ता है। स्वामी दयानन्द वेश्यावृत्ति को प्रश्रय देने वाले विलासी पुरुषों को इसका उत्तरदायी मानते थे। भारत के माथे से इस कलंक को मिटाने का उन्होंने बहुत प्रयास किया। फर्रूखाबाद निवासी सेठ दीनानाथ के कुपथगामी युवा पुत्र ने स्वामी जी के उपदेश से प्रभावित होकर वेश्यागमन छोड़ दिया था। नन्हींजान नामक वेश्या के चंगुल में फंसे महाराजा जोधपुर को महर्षि ने जो कड़ी फटकार दी थी, वह तो उनकी प्रमुख वेश्यावृत्ति विरोधी घटना है। भले ही यह घटना ऋषि के प्राणान्त का कारण बनी हो, परन्तु उन्होनें कभी किसी बुराई से समझौता नहीं किया। वर्तमान संदर्भ में नारीः– स्वामी दयानन्द ने नारी जागरण के लिए जिस वैचारिक एवं सामाजिक क्रान्ति का सूत्रपात किया, ऋषि के उस मिशन को आगे बढ़ाते हुए आर्य समाज ने अनेक कन्या विद्यालयों एव कन्या गुरुकुलों की स्थापना की। आज तो उसके सुन्दर परिणाम हमारे समुख हैं। शिक्षा के क्षेत्र में आज नारी पुरुष से पीछे नहीं है बल्कि पिछले दशक से तो ऐसा लगने  लगा है कि नारी इस प्रतिस्पर्धा में पुरुष से आगे निकलने लगी है। परन्तु खेद की बात यह है कि महर्षि दयानन्द के मस्तिष्क में जिस शिक्षा का कार्यक्रम था वह लुप्त होता जा रहा है। अतः समाज का यह दायित्व है कि उचित शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए वह कटिबद्ध हो। धर्म के क्षेत्र में आज की नारी के विचार सुलझे हुए नहीं है। साक्षर होते हुए भी नारी धार्मिक आडबरों की शिकार अधिक है। आवश्यकता है धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझने और तदनुरूप आचरण करने की ताकि घोर सांसारिकता के तनावपूर्ण क्षणों से मुक्ति पाई जा सके। स्वामी दयानन्द द्वारा प्रदत्त नारी जागृति का यह अभियान तभी सार्थक होगा जबकि स्वयं नारी बालक की प्रथम शिक्षिका बनने से लेकर सामाजिक चेतना को उचित दिशा देने का गुरुतर दायित्व वहन करे। नारी विषयक उक्त समस्त समस्याओं के मूल में अशिक्षा अथवा उचित शिक्षा का अभाव ही मुय कारण रहा है। अभी नारी की स्थिति में परिवर्तन का संघर्ष काल चल रहा है और समय की परिवर्तनशील गति के साथ समस्याएँ भी बदलती रही है। अब समय आ गया है कि समाज की जागरूक संस्थाओं के विद्वान् और चिन्तक आज की नारी समस्याओं को पहचान कर तद्विषयक उचित समाधानों के सुझाव और प्रसार का प्रयत्न करें। स्वामी दयानन्द के नारी सबन्धी क्रान्तिकारी कार्यक्रम आधुनिक प्रगतिशील संस्कृति में और भी अधिक प्रासंगिक सिद्ध हो रहे हैं। इसलिए हम निर्विवाद रूप से यह घोषणा कर सकते हैं कि वर्तमान युग की नारी – उत्थान क्रान्ति के सर्वाधिक सक्रिय उन्नायक महर्षि दयानन्द ही थे । परवर्ती सभी सुधारकों ने उन्हीं के कार्यक्रम का अनुगमन किया है।

वर्णव्यवस्था व दलितोद्धार में महर्षि दयानन्द का योगदान


इतिहास में महर्षि दयानन्द पहले व्यक्ति हुए हैं जिन्होंने उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जन्मना वर्ण-जाति व्यवस्था से ग्रस्त भारतीयों को वैदिक वर्णव्यवस्था के यथार्थ स्वरुप, जो गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित था व होता है, से परिचित कराया। महर्षि दयानन्द के विचारों को ‘‘सत्यार्थप्रकाश” ग्रन्थ के चौथे समुल्लास को पढ़कर जाना जा सकता है। ऋषि दयानन्द द्वारा वेदों की मान्यताओं वा शिक्षाओं के अनुसार गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित वर्णव्यवस्था का यथार्थ स्वरुप विदित हो जाने पर समस्त देशवासी हिन्दुओं को उसे स्वीकार कर लेना चाहिये था परन्तु देश व समाज के हितकारी उनके विचारों पर ध्यान नहीं दिया गया और मध्यकाल व उसके कुछ समय बाद आरम्भ छुआछूत व ऊंच-नीच जैसी अनुचित मान्यताओं पर आधारित जन्मना जाति व्यवस्था को ही व्यवहार में मानते रहे व अब भी मान रहे हैं। देश व समाज को जन्मना जाति व्यवस्था के अभिशाप से मुक्त कराने विषयक ऋषि दयानन्द के दलितोद्धार के प्रेरक कार्यों व उदाहरणों को हम यहां कीर्तिशेष प्रवर शोध आर्य विद्वान प्रा. कुशलदेव शास्त्री जी के एक लेख के आधार पर प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे पाठक उनसे परिचित हो सकें।
 वर्णव्यवस्था का उल्लेख कर प्रसिद्ध आर्य विद्वान डा. कुशलदेव शास्त्री ने लिखा है कि भिन्न-भिन्न क्षमताओं वाले व्यक्तियों को प्राचीन काल में ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन चार संज्ञाओं से संबोधित किया गया था। ब्राह्मण वर्ग से बौद्धिक नेतृत्व की अपेक्षा की गई थी। क्षत्रियों से सुरक्षा की कामना की गई थी। वैश्यों से व्यापार के माध्यम से समृद्धि की आशा की गई थी, तथा शूद्रों से शारीरिक श्रम द्वारा सेवा की अपेक्षा की गई थी। इसी का नाम वर्ण व्यवस्था था।
दलितोद्धार या जातिनिर्मूलन के प्रसंग में प्रायः यह प्रश्न उपस्थित होता रहा है कि वर्णव्यवस्था जन्मना है या कर्मणा। यदि उसे जन्मना माना जाय तो वह जातिगत भेदभाव को निर्माण करने का एक महत्तवपूर्ण कारण सिद्ध होती है। ऋषि दयानन्द कर्मणा वर्णव्यवस्था के पक्षधर हैं। उनकी यह धारणा थी कि जन्मना वर्णव्यवस्था तो पांच-सात पीढ़ियों से शुरु हुई है, अतः उसे पुरातन या सनातन नहीं कहा जा सकता। अपने तार्किक प्रमाणों द्वारा उन्होंने जन्मना वर्णव्यवस्था का सशक्त खंड़न किया है। उनकी दृष्टि में जन्म से सब मनुष्य समान हैं, जो जैसे कर्तव्य-कर्म करता है, वह वैसे वर्ण का अधिकारी होता है। कारण चाहे कुछ भी हो या न हो जन्मना वर्णव्यवस्था मानने वाले ऋषि दयानन्द के मत से असहमत हैं।
 अस्पृश्य अछूत-दलित शब्द का विवेचन प्रस्तुत करते हुए डा. कुशलदेव शास्त्री लिखते हैं कि दलितोद्धार से पूर्व दलितों के लिए सार्वजनकि सामाजिक क्षेत्र में अस्पृश्य और अछूत शब्द प्रचलित थे, लेकिन जब समाज-सुधार के बाद समाज में यह धारणा बनने लगी कि कोई भी अस्पृश्य और अछूत नहीं है, तो धीरे-धीरे अस्पृश्य के स्थान पर दलित शब्द रुढ़ हो गया। स्वाभाविक रूप से अस्पृश्योद्धार वा अछूतोद्धार का स्थान भी दलितोद्धार ने ले लिया। मानसिक परिवर्तन ने पारिभाषिक संज्ञाओं को भी परिवर्तित कर दिया।
 प्रदीर्घ समय तक सामाजिक, आर्थिक आदि दृष्टि से जिनका दलन किया गया, कालान्तर में उन्हें ही दलित कहा गया। पं. इन्द्र विद्यावाचस्पति के अनुसार जब यह महसूस किया जाने लगा कि शुद्धि और दलितोद्धार दोनों चीजें एक सी नहीं हैं। दलितों की हीन दशा के लिए सवर्ण समझे जानेवाले लोग ही जिम्मेदार हैं, जिन्होंने जाति के करोड़ों व्यक्तियों को अछूत बना रखा है। उन्हें मानवता का अधिकार देना सवर्णों का कर्तव्य है। इस विचार को सामने रखकर आर्य समाज के कार्यकर्ताओं ने अछूतों के लिए दलित और अछूतों के उद्धार कार्य के लिए दलितोद्धार की संज्ञा दे दी। तभी से अछूतों की शुद्धि के संदर्भ में दलितोद्धार संज्ञा प्रचलित हो गयी। यह बात अविस्मरणीय है कि आर्य समाज के समाज सुधार आंदोलन ने ही दलित-आन्दोलन को दलित और दलितोद्धार जैसे सक्षम शब्द प्रदान किये हैं। सन् 1917 से 1924 के मध्य स्वामी श्रद्धानन्द जी दिल्ली को केंद्र बनाकर दलितोद्धार के कार्य में सर्वात्मना समर्पित थे। वे ही दलितोद्धार सभा के संस्थापक थे। उसी काल में दलित-दलितोद्धार जैसे अभिनव शब्द समाज-सुधार आंदोलन को आर्य समाज ने प्रदान किये। कालांतर में डा. आंबेडकर और उनके आंदोलन ने इन संज्ञाओं को स्वीकार कर इन्हें और भी अधिक रूढ़ बनाया।
 हरिजन शब्द का विवेचन करते हुए डा. कुशलदेव शास्त्री लिखते हैं कि अस्पृश्योद्धार आंदोलन को हरिजन आंदोलन नाम देने का श्रेय महात्मा गांधी को है। ‘हरिजन’ पत्र के माध्यम से भी उन्होंने इस आंदोलन को गति दी। महात्मा गांधी ने यह सोचकर इस आंदोलन को गति दी कि, जिनका कोई नहीं, उनका हरि है, इन्हें हरिजन नाम दे दिया। निश्चित ही यह नाम देते समय महात्माजी के अंतःकरण में अस्पृश्यों के प्रति सद्भावना रही होगी, पर डा. आम्बेडकर जी को मिस्टर गांधी द्वारा दिया गया यह नाम पसंद नहीं आया। वस्तुतः नास्तिक बौद्ध धर्म की ओर झुकाव होने के कारण उन्हें हरि जैसी अनादि सत्ता में विश्वास भी नहीं था। फिर अस्पृश्यों को हरिजन नाम देनेवाले महात्मा गांधी महर्षि दयानन्द की तरह कर्मणा वर्ण व्यवस्था के पक्षधर न होकर जन्मना वर्ण व्यवस्था के हिमायती थे। डा. आम्बेडकर जी के लिए राजनैतिक नेताओं की तुलना में आर्य समाजी नेता अधिक विश्वसनीय थे। ऐसे ही कुछ कारण रहे होंगे जिससे उन्होंने हरिजन शब्द की उपेक्षा की होगी, और दलित शब्द का स्वीकार किया होगा। आज महाराष्ट्र में डा. आम्बेडकर का दलित अनुयायी हरिजन संज्ञा को अपने लिए प्रयुक्त अपशब्द सा ही समझता है। पं. इन्द्र विद्यावाचस्पति के अनुसार केवल जन्म के आधार पर अनेक जातियों को एक अलग वर्ग मानकर उन्हें हरिजन का नाम दे देना सर्वथा अनुचित है। यह मनुष्य मात्र की समानता की दृष्टि से तो अनुचित है ही, व्यावहारिक दृष्टि से भी अत्यंत हानिकारक है।
 अब हम डा. कुशलदेव शास्त्री जी द्वारा प्रस्तुत ऋषि दयानन्द की दलितों के उन्नयन में व्यवहारिक भूमिका विषयक गवेषणायुक्त कार्यों आदि को प्रस्तुत करते हैं। वह लिखते हैं कि ऋषि दयानन्द का व्यक्तित्व मनसा-वाचा-कर्मणा एक जैसा था। वे अपने सिद्धान्तों का केवल वाणी और लेखनी द्वारा ही प्रचार नहीं करते थे, अपितु उन्हें वे अपने क्रियात्मक जीवन में सार्थकता प्रदान करते थे। वर्ण व्यवस्था और दलितोद्धार के संदर्भ में उनके जीवन से एकाधिक उदाहरण प्रस्तुत हैं-
 खान-पान या स्पृश्यास्पृश्यता की दृष्टि से देखें तो ऋषि दयानन्द का प्रगतिशील व्यक्तित्व हमें पदे-पदे नजर आता है। सन् 1867 में गढ़मुक्तेश्वर में वे मांझी की आधी रोटी खाते हैं। सन् 1868 में में फर्रुखाबाद में श्री सुखवासीलाल साध द्वारा लाये कढ़ी-भात का भोजन स्वीकार करते हैं। सन् 1872 में अनूप शहर में उपस्थित जन समुदाय के बीच नाई का भोजन ग्रहण करते हैं। सन् 1874 में अलीगढ़ जनपद के जाट श्री गुरुराम प्रसाद के वेदभाष्यनुवाद को संशोधित करने के लिए वे अपना अमूल्य समय देने के लिए तत्पर रहते हैं। सन् 1874 में ही बिना जूते पहने कच्चा भोजन लानेवाले भक्त ठाकुर प्रसाद से वह यह स्पष्ट रूप में कह देते हैं कि मैं छुआछूत को नहीं मानता आप भी इस बखेड़े में मत पड़िए। इसी वर्ष गुजरात के कातार गांव में किसानों द्वारा आग में भूनकर दी गई ज्वार (पोंक-हुर्डा) को वे सहर्ष ग्रहण करते हैं। पुणे में सर्वश्री गोविंद मांग, गोपाल चमार, रघु महार आदि का लिखित प्रार्थना पत्र पाकर शूद्रातिशूद्रों के विद्यालय में 16 जुलाई 1875 को वेदोपदेश देते हैं। सन् 1878 में मुस्लिम डाकिये द्वारा एक अस्पृश्य (कसाई मजहबी सिख) श्रोता को दुत्कारे जाने पर भी उसे रुड़की में आत्मीयता पूर्वक नियमित रूप से अपने वेद-प्रवचन में आने का निमंत्रण देते हैं। सन् 1879 में जन्म के मुसलमान मुहम्मद उमर को अलखधारी नाम प्रदान कर अपनत्व प्रदान करते हैं। अपने ही नही सबके मोक्ष की चिंता करनेवाले थे ऋषि दयानन्द। किसी जाति-सम्प्रदाय वर्ग विशेष के लिए नहीं अपितु सारे संसार के उपकार के लिए उन्होंने आर्यसमाज की स्थापना की थी।
 सन् 1880 में काशी में एक दिन एक मनुष्य ने वर्ण व्यवस्था को जन्मगत सिद्ध करने के उद्देश्य से महाभाष्य का निम्न श्लोक प्रस्तुत कियाः-
 विद्या तपश्च योनिश्च एतद् ब्राह्मण कारकम्।
विद्या तपोभ्यां यो हीनो जाति ब्राह्मण एव सः।। 4/1/48।।
 अर्थात् ब्राह्मणत्व के तीन कारक हैं – 1) विद्या, 2) तप और 3) योनि। जो विद्या और तप से हीन है वह जात्या (जन्मना) ब्राह्मण तो है ही।
 ऋषि दयानन्द ने प्रतिखंडन में मनु का यह श्लोक प्रस्तुत किया
 यथा काष्ठमयो हस्ती, यश्चा चर्ममयो मृगः।
यश्च विप्रोऽनधीयानस्त्रयस्ते नाम बिभ्रति।।2, 157।।
 अर्थात् जैसे काष्ठ का कटपुतला हाथी और चमड़े का बनाया मृग होता है, वैसे ही बिना पढ़ा हुआ ब्राह्मण होता है। उक्त हाथी, मृग और विप्र ये तीनों नाममात्र धारण करते हैं। संस्कारविधि में भी ऋषि दयानन्द ने अपनी इस धारणा को अभिव्यक्त किया है।
 सन् 1880 में ही काशी में एक दिन एक और व्यक्ति ने महर्षि से जाति भेद के विषय पर विचार किया। प्रत्युत्तर में ऋषि ने कहा कि ब्राह्मणादि वर्ण जन्मगत नहीं हो सकते यदि ऐसा हो तो एक ब्राह्मण के दो पुत्रों में से एक ईसाई और एक मुसलमान हो जाये तो क्या फिर वे ब्राह्मण ही माने जायेंगे, यदि नहीं माने जायेंगे तो फिर जन्म से ब्राह्मणत्व कहां रहा? महर्षि ने सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में भी इस बात का प्रतिपादन किया है। सन् 1880 में ही मेरठ मे लगभग एक मास तक ऋषि दयानन्द की अंतेवासिनी बनकर शिक्षा ग्रहण करनेवाली महाराष्ट्रीय विदुषी पंडिता रमाबाई ने 13 नवम्बर 1903 को लिखे पत्र में यह स्वीकार किया था कि स्वामी जी की शिक्षा स्त्रियों को वेदाधिकार प्रदान करती थी और इस कारण मैं उनसे प्रसन्न थी।
 सन् 1876 में मुंबई में हरिश्चंद्र चिंतामणि के सुपुत्र का उपनयन संस्कार करवाने वाले और इससे पूर्व कर्णवास में हंसादेवी ठाकुर को गायत्री मंत्र का उपदेश देनेवाले ऋषि दयानन्द 1880 में मुंशी मुख्तावर सिंह, मुंशी समर्थदान तथा लाला शादीराम का भी उपनयन संस्कार करवाते हैं। स्मरण रहे ऋषि दयानन्द से पूर्व और विशेष रूप से मध्यकाल से ब्राह्मणों के अतिरिक्त सभी वर्णस्थ व्यक्तियों को शूद्र समझा गया था, अतः क्रमशः मुगल और आंग्ल काल में महाराष्ट्र केसरी छत्रपति शिवाजी महाराज, बड़ौदा नरेश सयाजीराव गायकवाड और कोल्हापुर नरेश राजर्षि शाहू महाराज को उपनयन आदि वेदोक्त संस्कार कराने हेतु आनाकानी करनेवाले ब्राह्मणों के कारण मानसिक यातनाओं के बीहड़ जंगल से गुजरना पड़ा था। सन् 1880 में दानापुर में अर्धरात्रि में टहलते हुए ऋ़षि दयानन्द के पैरों की आहट पाकर जब कर्मचारी ने कष्ट का कारण पूछा तो ऋ़षि दयानन्द ने प्रत्युत्तर में कहा था कि ‘ईसाई लोग दलितों को ईसाई बनाने का भरसक प्रयत्न कर रहे हैं और अपना रुपया पानी की तरह बहा रहे हैं और इधर हमारे नेता कुंभकर्ण की नींद सो रहे हैं। यही चिंता मुझे विकल कर रही है।’
 सन् 1867 में हरिद्वार में ऋषि दयानन्द ने ‘‘पाखंड खंडिनी पताका” गाड़कर जब सार्वजनिक जीवन में अंगद की तरह दृढ़तापूर्वक कदम रखा था, तभी से वे जन्मना वर्ण व्यवस्था के विरोधी थे। काशी के प्रसिद्ध पं. विशुद्धान्द सरस्वती भी इस कुंभ मेले में उपस्थित थे। जब उन्होंने ‘ब्राह्मण परमेश्वर के मुख से उत्पन्न हुए, क्षत्रिय भुजा से, वैश्य जांघ से और शूद्र पैरों से उत्पन्न हुए’ तब ऋषि ने इसका खंडन करते हुए कहा था कि ‘यदि इसका यही अर्थ है तो मुख से खखार भी उत्पन्न होता है। मंत्र का सही अर्थ ब्राह्मण मुख से उत्पन्न हुए नहीं अपितु मुख के समान है।’ इससे स्पष्ट है कि ऋषि दयानन्द अपने सार्वजनिक जीवन के प्रारंभ में भी वर्ण व्यवस्था जन्मगत नहीं, अपितु गुण कर्मानुसार ही मानते थे। सन् 1882 में उदयपुर में, एक प्रकार से ऋषि दयानन्द के जीवन की संध्याकाल में, दो साधु उनसे मिले और निवेदन किया कि आप अधिकारी लोगों को ही उपदेश दिया करें। प्रत्युत्तर में ऋषि ने कहा, ‘‘धर्म के विषय में अधिकार अनाधिकार का प्रश्न उठाना सर्वथा व्यर्थ है, धर्मोपदेश सुनने का मनुष्य मात्र को अधिकार है। आपकी जाति और धर्म के सैकड़ों मनुष्य विधर्मी हो रहे हैं और आप अधिकार और अनाधिकार का पचड़ा लिए बैठे हैं। पहले उन्हें तो बचाइए।” ऋषि के इसी सन्देश को व्यक्त करते हुए श्री कुंवर सुखलाल ने अपनी एक गजल में लिखा था, ‘‘लो दलितों को छाती लगा भाइयों ! वरना ये लाल गैरों के घर जायेंगे।”
 महर्षि दयानन्द के अन्तःकरण में दलित, शोषित, निर्धनों के प्रति अत्यंत ही करुणा थी। ‘संस्कारविधि’ में धनसंपन्न व्यक्ति या संगठन का कर्तव्य उन्होंने लिखा है, ‘अंत्येष्टि संस्कार हेतु महादरिद्र भिक्षुक को आधे मन से कम घृत न देवें।’ ऋषि दयानन्द राजस्थान के एक नरेश को अपने पत्र में लिखते हैं, ‘शासक यदि भोजन पर बैठा हो और उस समय यदि उसे कहीं से नारी का करुण रुदन सुनाई दे तो उसका कर्तव्य है कि वह थाली से उठकर पहले उसके आंसू पोंछे।’ अपने निष्प्राण शिशु का तन ढकने के लिए कफन वापिस ले आनेवाली मां की विवशता को देख ऋषि दयानन्द का करुणावान् हृदय अतिशय विह्वल हो उठा था। महर्षि दयानन्द ने जहां दलितों का उद्धार किया वहां दलितों से भी अत्यधिक दलित-प्रपीड़ित स्त्री जाति की भी आंतरिक व्यथा को तहेदिल से दूर करने का प्रयास किया। मौत के जबड़े में जा रही आर्य जाति की अवनति से ऋषि दयानन्द बेहद चिंतित थे, इसीलिए उन्होंने एक बार श्री मोहनलाल पंडया से कहा था ‘धर्माचार्यों के प्रमाद के कारण लोग विधर्मी हो रहे हैं, अतः बढ़ती हुई कुरीतियों और कुनीतयों को नष्ट करने के लिए उपदेशों के कोड़ों से इन सबको जगाना बहुत जरुरी है।’
 दलितों के उत्कर्ष हेतु ऋषि दयानन्द द्वारा अपनाये गए साधन
 ऋते ज्ञानान्नमुक्तिः अर्थात् ज्ञानी हुए बिना इन्सान की मुक्ति संभव नहीं है। अतः ऋषि दयानन्द का दलितोद्धार की दृष्टि से भी सब से महान् कार्य यह था कि उन्होंने सबके साथ दलितों के लिए भी वेद-विद्या के दरवाजे खोल दिए। मध्यकाल मे स्त्री-शूद्रों के वेदाध्ययन पर जो प्रतिबंध लगाये गए थे, आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द ने अपने मेधावी क्रांतिकारी चिंतन और व्यक्तित्व से उन सब प्रतिबंधों को अवैदिक सिद्ध कर दिया। ऋषि दयानन्द के दलितोद्धार के इस प्रधान साधन और उपाय में ही उनके द्वारा अपनाये गए अन्य सभी उपायों का समावेश हो जाता है, जैसे 1) दलित स्त्री-शूद्रों को गायत्री मंत्र का उपदेश देना। 2) उनका उपनयन संस्कार करना। 3) उन्हें होम-हवन करने का अधिकार प्रदान करना। 4) उनके साथ सहभोज करना। 5) शैक्षिक संस्थाओं में शिक्षा वस्त्र और खान पान हेतु उन्हें समान अधिकार प्रदान करना। 6) गृहस्थ जीवन में पदार्पण हेतु युवक-युवतियों के अनुसार (अंतरजातीय) विवाह करने की प्रेरणा देना आदि। डा. आंबेडकर ने भी स्वीकार किया है कि-‘‘स्वामी दयानन्द द्वारा प्रतिपादित वर्णव्यवस्था बुद्धि गम्य और निरूपद्रवी है।” डा. बाबासाहेब आंबेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय के उपकुलपति, महाराष्ट्र के सुप्रसिद्ध वक्ता प्राचार्य शिवाजीराव भोसले जी ने अपने एक लेख में लिखा है, ‘राजपथ से सुदूर दुर्गम गांव में दलित पुत्र को गोदी में बिठाकर सामने बैठी हुई सुकन्या को गायत्री मंत्र पढ़ाता हुआ एकाध नागरिक आपको दिखाई देगा तो समझ लेना वह ऋषि दयानन्द प्रणीत का अनुयायी होगा।’
 समीक्षकों की दृष्टि में दलितोद्धारक दयानन्द
 आर्यसमाजी न होते हुए भी ऋषि दयानन्द की जीवनी के अध्ययन और अनुसंधान में पंद्रह से़ भी अधिक वर्ष समर्पित करनेवाले बंगाली बाबू देवेंद्रनाथ ने दयानन्द की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए लिखा है, ‘वेदों के अनधिकार के प्रश्न ने तो स्त्री जाति और शूद्रों को सदा के लिए विद्या से वंचित किया था और इसी ने धर्म के महंतों और ठेकेदारों की गद्दियां स्थापित की थीं, जिन्होंने जनता के मस्तिष्क पर ताले लगाकर देश को रसातल में पहुंचा दिया था। दयानन्द तो आया ही इसलिए था कि वह इन तालों को तोड़कर मनुष्यों को मानसिक दासता से छुड़ाए।’ ऋषि दयानन्द के काशी शास्त्रार्थ में उपस्थित पं. सत्यव्रत सामश्रमी ने भी स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हुए लिखा है, ‘‘शूद्रस्य वेदाधिकारे साक्षात् वेदवचनमपि प्रदर्शितं स्वामि दयानन्देन यथेमां वाचं ….. इति।” पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय जी के शब्दों में यदि ऋषि दयानन्द किसी वेद का भाष्य न करते और केवल इसी मंत्र को देकर चले जाते तो इतना कार्य भी वैदिक संस्कृति के उत्थान के लिए पर्याप्त था। डा. चन्द्रभानु सोनवणे ने लिखा है, ‘मध्यकाल में पौराणिकों ने वेदाध्ययन का अधिकार ब्राह्मण पुरुष तक ही सीमित कर दिया था, स्वामी दयानन्द ने यजुर्वेद के (26/2) मंत्र के आधार पर मानवमात्र को वेद की कल्याणी वाणी का अधिकार सिद्ध कर दिया। स्वामीजी इस यजुर्वेद मंत्र के सत्यार्थद्रष्टा ऋ़षि हैं।’ ऋषि दयानन्द के बलिदान के ठीक दस वर्ष बाद उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए दादा साहेब खापर्डे ने लिखा था, ‘स्वामीजी ने मंदिरों में दबा छिपाकर रखे गए वेद भंडार समस्त मानव मात्र के लिए खुले कर दिये। उन्होंने हिंदू धर्म के वृक्ष को महद् योग्यता से कलम करके उसे और भी अधिक फलदायक बनाया।’ ‘वेदभाष्य पद्धित को दयानन्द सरस्वती की देन’ नामक शोध प्रबंध के लेखक डा. सुधीर कुमार गुप्त के अनुसार ‘स्वामी जी ने अपने वेदभाष्य का हिंदी अनुवाद करवाकर वेदज्ञान को सार्वजनिक संपत्ति बना दिया।’
 पं. चमूपति जी के शब्दों में ‘दयानन्द की दृष्टि में कोई अछूत न था। चाहे उमेदा नई हो या मलकाना रुस्तमसिंह। उनकी दयाबल-बली भुजाओं ने उन्हें अस्पृश्यता की गहरी गुहा से उठाया और आर्यत्व के पुण्यशिखर पर बैठाया था।’ हिंदी के सुप्रसिद्ध छायावादी महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने लिखा है ‘‘देश में महिलाओं, पतितों तथा जाति-पांति के भेदभाव को मिटाने के लिए महर्षि दयानन्द तथा आर्यससमाज से बढ़कर इस नवीन विचारों के युग में किसी भी समाज ने कार्य नहीं किया। आज जो जागरण भारत में दीख पड़ता है, उसका प्रायः सम्पूर्ण श्रेय आर्य समाज को है।’ महाराष्ट्र राज्य संस्कृति संवर्धन मंडल के अध्यक्ष मराठी विश्वकोश निर्माता तर्क-तीर्थ लक्ष्मण शास्त्री जोशी ऋषि दयानन्द की महत्ता लिखते हुए कहते हैं, ‘सैकड़ों वर्षों से हिंदुत्व के दुर्बल होने के कारण भारत बारंबार पराधीन हुआ। इसका प्रत्यक्ष अनुभव महर्षि स्वामी दयानन्द ने किया। इसलिए उन्होंने जन्मना जातिभेद और मूर्तिपूजा जैसी हानिकारक रुढ़ियों का निर्मूलन करनेवाले विश्वव्यापी महत्वाकांक्षा युक्त आर्यधर्म का उपदेश किया। इस श्रेणी के दयानन्द यदि हजार वर्ष पूर्व उत्पन्न हुए होते तो इस देश को पराधीनंता के दिन न देखने पड़ते। इतना ही नहीं, प्रत्युत विश्व के एक महान् राष्ट्र के रूप में भारतवर्ष देदीप्यमान होता।’

 हमें यह लेख अपने विषय का सर्वोत्तम लेख लगता है। हम आशा करते हैं कि पाठक इस लेख को पढ़कर ऋषि दयानन्द और उनकी अनुयायी संस्था आर्यसमाज के दलितोद्धार कार्यों से परिचित हो सकेंगे। यदि दलित भाईयों तक भी यह पंक्तियां पहुंचती हैं तो वह भी यथार्थ स्थिति जानकर अपने व अपने समुदाय के हित की दृष्टि से सही दिशा व मार्ग निर्धारित कर सकते है, जो कि एकमात्र आर्यसमाज व उसकी वैदिक विचारधारा है, ऐसा हम अनुमान करते हैं।

Wednesday, 20 January 2016

संस्कृत शिक्षणे गुणात्मकं संशोधनम्

संस्कृत शिक्षणे गुणात्मकं संशोधनम्
          संस्कृतज्ञानमन्तरेण भारतीया संस्कृतेर्ज्ञानमसम्भवमिति सुविदितमतेत् सर्वेषां विद्वन्मताम्। अतः संस्कृतेः संरक्षणे संस्कृतभाषायाः ज्ञानमनिवार्यं यतोहि समग्रमेव भारतीयं वाङ्मयं संस्कृतमाश्रित्यैवावतिष्ठते इति सुविदितमेव। संस्कृत्या वाङ्मयेन च विहीनस्य देशस्य अधःपतनमनिवार्यम्। द्वयोरेवैतयोः संरक्षणाय संवर्धनाय च संस्कृतभाषाशिक्षणे समयानुकूलं संशोधनमावश्यकम्। अतोऽत्र केषाञ्चन संशोधनां विवेचनमधः प्रस्तूयते –
Ø क्लिष्टा दुरूहा दुर्बोधा संस्कृतभाषा इति जनानां विचारः प्रशमं नेयः। अस्य कृते संस्कृतसम्भाषणशिविराणि सर्वत्र आयोजितव्यानि।
Ø संस्कृतभाषायाः व्याकरणं सरलं कार्यम्। व्याकरणनियमाः अनुवादद्वारा प्रयोगशैल्या च शिक्षणीयाः।
Ø संस्कृतशिक्षणे गुणात्मकतां वर्धनाय आधुनिकयुगेऽस्मिन् शिक्षणं आधुनिकप्रविधिभिः सह भाव्यम्। तदर्थं स्वाभाविकतायाः सिद्धान्तः, रुचेः सिद्धान्तः, शिक्षणसूत्राणां सिद्धान्तः इत्यादयः सिद्धान्ताः व्यवहर्तव्याः।
Ø संस्कृतशिक्षणे छात्राणां स्तरस्यापि ध्यानं प्रदाय शिक्षामनोविज्ञानस्य नियमान् परिपाल्य अध्यापकेन अध्यापनीयः।
Ø संस्कृतभाषायाः विवर्धनाय संस्कृतस्यानेके महार्घाः ग्रन्थाः विलुप्ताः जीर्णाः शीर्णाः वा यत्र तत्रोपलभ्यन्ते, तेषामुद्धारः करणीयः।
Ø सर्वेषां प्रमुखानामुपयोगिनां च संस्कृतग्रन्थानां सानुवादः तथा च अल्पमूल्यकं संस्करणं प्रकाशितं स्यात्।
Ø शिक्षणं रुचिकरं विधातुं दृश्यश्रव्योपकरणानां प्रयोगः कर्तव्यः।
Ø संस्कृतस्य नैकविधविषयाणां प्रयोगमुखेन अध्ययनं भवेत्, यथा – भाषायाः व्यवहारकाले व्याकरणस्य प्रयोगः, ग्रहनक्षत्राणां अध्ययनसमये ज्योतिषशास्त्रस्यापि अध्ययनं स्यात्

Ø संगणकस्य माध्यमेन कथासाहित्यं रुचिकरं कुर्यात्, येन ज्ञानाधिगमकाले बालान् प्रमोदः जायेत्।

वेदेषु सामाजिकसमन्वय:

                                                                
वेदेषु सामाजिकसमन्वय:
Walkhade  Bhupendra  Arun
M.Phil., Research Scholar
Special Centre For Sanskrit Studies
Jawaharlal Nehru University
New Delhi -67
Email – raasjnu@gmail.com

प्रायशो भारतीयानामादयो धर्मग्रन्था वेदाः सन्ति, तेषु सर्वत्र सामाजिकव्यस्थायाः समन्वयो दृश्यते। कुत्रपि वेदेषु जातेश्चर्चा प्राप्यते ,यतोह्यधुनातन एषा महती समस्या जातिविषयिणी प्रवहन्ती लक्ष्यते, तेन समाजे सर्वत्र जनै: पारस्स्परिकविद्वेषकारणात् सामाजिकसमरसताया ह्रासो सन्दृश्यते। अतो हेतो एतादृश्या विमानसताया उच्छेद: कथं स्यात् अद्यतनीनसमाजे व्याप्तस्यानुचितप्रचारस्योच्छेदार्थम्,  अस्य वेदमूलकत्वं प्रदर्श्य शिक्षितवर्गीयानां समक्षमुपस्थापयिष्यते -
अस्य पत्रस्य क्षेत्रमिदमेव यत् समाजेऽव्यवस्थानां यद्दर्शन तासां सर्वाषां वेदमूलकत्वं नास्ति, येन विभिन्नवर्गीयाणां जनानां वेदेषु श्रद्धा स्यात् तथा तेऽपि सर्वे वेदानधीत्य सामाजिकी या एकता , तादृश्यैकताया: संरक्षणाय ज्ञानपूर्वकं प्रयतेरनइति धिया ऋग्वेदेऽन्येषु वेदेषु सामाजिकसमन्वयभावना कथमासीदिति प्रदर्श्यते-  इदानीमपि यदि तज्ज्ञानस्य प्रासङ्ग्यं स्यात् तर्हि सामाजिकबिभेदस्यापकरणमवश्यमेव स्यात् यतोह्यद्यत्वे लोकतन्त्रप्रणाली प्रदूषितावलोक्यते, यतोहि समाजिकप्रतिनिधिभिः समाजे विभेदविषं प्रचार्यते।             किन्तु तैर्यथाविध: प्रचार:  समाजे क्रियते,  वेदाननधीत्यैव तन्नारकीयम्,एतस्मात् समाजस्य रक्षणाय सामाजिक्यैकताऽपेक्ष्यते। सा वेदेषु दरीदृश्यते। अतो वेदात्मकतत्वज्ञानेन पारस्परिकजातिविषयकविद्वेषस्य  क्षिप्रमेव समन्वय: स्यात्। इति धिया प्रवर्तमानोऽहं पत्रमिदं लिलिखिषामि।
वर्णव्यवस्था  -
यदि विचार्येत् सामाजिकव्यस्थाया असन्तुलने बीजं किं तर्हि मन्मते तु पुरुषसूक्तमेव , यतोहि व्याख्याकर्तृभिर्बहुप्रकारकैर्विद्वद्भिरेतादृग्विश्विश्वोत्पत्तिव्यवस्थापकस्य सूक्तस्यानुपयुक्तं व्याख्यानं कृतम्। येन सामाजिकी समरसतायाः ऐक्यस्य नाशो वभूव। मन्त्रो वर्णव्यस्थाप्रतिष्ठापक:-
 ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्य: कृत:
ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पद्भ्यां गुं शूद्रोऽजायत्॥[1] 
अर्थात् ब्रह्मणो मुखात् ब्राह्मणोत्पत्तिस्तेन ब्राह्मणानां श्रेष्ठत्वम्,अस्तीति प्रतिपाद्यते,तस्माद्ब्राह्मणानां श्रेयस्त्वं निगद्यते बाहुभ्यां क्षत्रिया: सूता: तस्मात् कारणात् क्षत्रियाणामन्येषामपेक्षया श्रेष्ठत्वम् एतस्मात्कारणात् द्वयोर्वर्णयोश्श्रेष्ठत्वं प्रतिपाद्यते, इत्याकारिका धीर्जनानां हृदि मिथ्यात्वं प्रतिपादयति-
धारणैतादृशी मनसो निष्कास्या भवित्री। अग्रे कथ्यतेऊरूभ्यां वैश्योत्पत्तिर्जाता, एतस्मात्कारणादेव वरीयताक्रमे वैश्यानां तृतीयं स्थानं विद्यते पद्भ्यां शूद्रोत्पत्तिर्दृश्यतेऽथर्ववेदे कथ्यते-
             श्रमेण तपसा सृष्टा ब्रह्मणा वित्ता ऋते श्रिताः।
             सत्येनावृता श्रिया प्रवृता यशसा प्रवृता ।।
            श्रद्धया पर्यूढा दीक्षया गुप्ते यज्ञे प्रतिष्ठिता।[2]
यजुर्वेदेऽपि निगदितम्-
  रुचं नो धेहि ब्रह्मणेषु रुचं राजसु नस्कृधि।
  रुचं विश्येषु शूद्रेषु, मथि धेहि रुचा रुचम्।।[3]
अन्यात्रापि- प्रियं मा कृणु देवेषु प्रियं राजसु मा कृणु।
                             प्रियं सर्वस्य पश्यत उत शूद्र उतार्ये॥ [4]
वस्तुत: वेदेषु एतादृशेषु मन्त्रेषु  सर्वत्र वर्णव्यस्था परिलक्ष्यते, तस्मात् पुरातने या वर्णव्यस्था आसीत्, सा तु कर्मणा दृश्यते तु जन्मना, यथोक्तं गीतायाम्-
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्॥[5]
अर्थात् जन्मना वर्णव्यस्था अपितु कर्मणा एव अस्य श्लोकस्य व्याख्यानं भगवत्पादाचार्येणादिशङ्कराचार्येण क्रियते-चातुर्वण्यं चत्वार एव वर्णाः चातुर्वर्ण्यम्,  मया ईश्वरेण सृष्टम्, उत्पादितम्, “ब्राह्मणोऽस्य  मुखमासीद्……”इत्यादि श्रुते: गुणकर्मविभागशः गुणविभागशः कर्मविभागशः गुणाश्च सत्वरजतमांसि।
तत्र सात्विकस्य सत्वरजप्रधानस्य ब्राह्मणस्य शमो दमस्तप इत्यादीनि कर्माणि।
सत्वोपसर्जनरज:प्रधानस्य क्षत्रियस्य शौर्यतेज:प्रभृतीनि कर्माणि। तम उपसर्जनरज:प्रधानस्य वैश्यस्य कृष्यादीनि कर्माणि। रज उपसर्जनत्तम:प्रधानस्य शूद्रस्य शुश्रूषा एव कर्म। इति गुण कर्मविभागश: चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टमित्यर्थ: तत् इदं चातुर्वर्ण्यं अन्येषु लोकेषु  अतो मानुषे लोके इति  विशेषणम्।  एवं रीत्या शङ्कराचार्य एतन्मन्त्रस्य व्याख्यानं चकार।
अतो हेतो गुणकर्माधारितैव वर्णव्यवस्था तु जन्मना ।मनुस्मृतावपि-
जन्मना जायते शूद्र: कर्मणा द्विज उच्यते……………….” अर्थात् सर्वत्रापि कर्माधारिता एव वर्णव्यस्था दृश्यते तु जन्मना, वेदेषु शास्त्रेषु , किन्तु विद्वद्भि: कैश्चित् आनुचित्यं व्याख्यानं विधाय साम्प्रतं तेषां  (मनुस्मृतिसदृशग्रन्थानां) अप्रासङ्गिकत्वं प्रदर्शयन्ति- किन्तु वैपरीत्यं तेषां ग्रन्थानां तु अप्रासङ्गिकत्वं , अपितु तच्चिन्तनधाराया अप्रासङ्गिकत्वं दरीदृश्यते। कुत्रचिदपि जात्याधारिता वर्णव्यस्था प्रत्युत कर्माधारितैव दृश्यते
यतो हि तात्विकदृष्टावप्येकस्मादेव परब्रह्मणोऽस्मदीयानां समेषामुत्पत्तिरभूत् अतस्मात्कारणादेव बृहच्छरीरिणैव चातुर्वर्ण्योत्पत्ति:, तेन अस्मास्वेकत्वमेव कथमिति चेत्? तर्हि यथा शरीरे दृश्यते ,रक्तं प्रवहति  ,शिरिषि हस्तयोरुर्व्व्यो: पादयोश्च सर्वस्मिन्नपि शरीरे एकप्रकारकमेव रक्तं प्रवहति तु भिन्नं-भिन्नं तस्मादपि एकत्वम्।  लौकिकरीत्या यदि ब्रह्मण्यपि विचार्येत्  तदानीमपि तद्ब्रह्मणि यद्र्क्तं  तद्र्क्तद्वारिकैव वर्णोत्पत्तिः।
तेनापि सर्ववर्णेष्वैकत्वम्, त्वनेकत्वं  विद्यते, तोहि एकमेव द्रव्यं वर्णव्यस्थोत्पादकम्। तस्माद्उत्द्यते यस्माज्जगदित्युपादानम्इतिलक्षणेन द्रव्यात्मकत्वादपि वर्णव्यस्थाया एकत्वं समत्वञ्च विभाव्यते। तु उच्चावचीयाभावना परस्परविभेदः।  एतस्मान्निश्चीयते यद्वेदेषु  सर्वत्र या वर्णव्यवस्था, सा तु कर्मणैव जायमाना आसीत् तु जन्मना, यतोहि वेदेषु कुत्रचिदपि दृश्यते  यज्जन्मना वर्णाव्यस्था आसीत्। यै: ऋग्वेदस्य सूक्तोदाहरणं दत्वा प्रतिपाद्यते यत् वर्णव्यस्थायां दृश्यतेऽश्पृश्यता तत्सर्वं कपोलकल्पना मात्रम्। यथाऽयं मन्त्रः प्रतिपादयति सुन्दरं भाव:-
                         यथेमां वाचं कल्यणीमावदानि जनेभ्य:
ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय [6]
अतो निश्चीयते यद्वेदेषु चतुर्वर्णेषु सामञ्जस्यमासीत् ,तत्रोच्चावचयो: स्पृश्यास्पृश्ययो: सर्वदा आसीदभाव: रोचकोऽयं प्रसङ्गो यत्-वेदेषु विप्रराज्यस्य  समर्यराज्यस्य चोल्लेख: प्राप्यते। एतद्राज्ययोर्विषये कथ्यते यदेतयो: प्रसृति: समुद्रवदासीत्[7] अस्मिन् प्रसृते राज्ये यज्ञेषु धार्मिकक्रियाकलापेषु  वलं दीयते स्म। समर्यराज्यविषये कथ्यते[8] राज्यमिदं महदुत्कृष्टमासीत्। अस्मिन् धनधान्यस्य सैन्यशक्तेश्च प्राबल्यमासीत्। किन्तु काश्चन न्यूनता आसन् तस्माद्धेतो: द्वेऽपि शासनपद्धती लोकप्रिये बभूवतुः। मनुः कथयति- वर्णव्यवस्थाविषये यदि कश्चन ब्राह्मणो वेदाननधीत्यान्यत्र श्रमं कुरुते तर्हि शूद्रतामधिगच्छति।
  योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम्।
  जीवन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वय:[9]
यदि मनोरियमुक्तिर्विचार्येत्तदानीं तु सर्व एव अद्यतनीना ब्रह्मणा: शूद्रा एव ,यतोहि ब्रह्माणाद्युच्चवर्गीयै: सर्वैरन्यत्र वेदव्यतिरिक्तक्षेत्रे  एव श्रमो विधीयते, अत एव स्पष्टत्वेन मनुना कर्मद्वारिका एव वर्णव्यवस्था इति प्रतिपादितम् ,तेन कर्मणा एव जातिव्यवस्था अद्यत्वेऽप्यादर्या। 
आश्रमव्यवस्था-
आश्रमव्यवस्थयापि ज्ञायते यत् संसद्येकत्वमासीत्, यतोहि चतुर्विधत्वमेवाश्रमाणाम्। एतस्मादपि प्रतीयते यत्सर्ववर्णीया जना: सर्वेषु आश्रमेषु जग्मुर्न केवलं ब्राह्मणा एव सर्वाश्रमान् बुभुजु: नास्त्यत्र सन्देहो यतोहि प्रार्त्यक्षमद्यत्वेऽपि क्रियते।
 ऋग्वेदे आश्रमव्यस्थाविषये निगद्यते-
                        ब्रह्मचारी चरति वेविषद्विष: देवानां भवत्येकमङ्गम्।
                तेन जायामन्वविन्दद् वृहस्पति: सोमेन नीतां जुह्वं देवा:[10]
ऋग्वेदे .५५.१६ तथा ..९अत्रापि ब्रह्मचर्यं विधाय विवाहयोग्यानां युवतीनां वर्णनं वर्तते। अथर्ववेदे तु ब्रह्मचर्यब्रह्मचार्यो  महिमवर्णनं  विस्तरेण क्रियते। यथा-
आचार्यो ब्रह्मचारी ब्रह्मचारी प्रजापति:
 प्रजापतिर्विराजतिविरादिन्द्रोऽभवद्रशी॥
ब्रह्मचर्येण तपसा राजाराष्ट्रं विरक्षति।
 आचार्यो ब्रह्मचर्येण ब्रह्मचारिणमिच्छते॥
                                    ब्रह्मचर्येण कन्या३ युवानं विन्दते पतिम्।
 अनड्वान् ब्रह्मचर्येणाश्वो घासं जिगीर्षति॥
 ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमुपाघ्नत
 इन्द्रो ब्रह्मचर्येण देवेभ्य: स्व१राभरत्॥
इत्थं सर्वत्र वेदेषु आश्रामाणि पुरस्कृत्यापि सामाजिकव्यवस्थाया एकत्वं प्रतिपेदे।
ऐक्यविषये शुक्लयजुर्वेदे  चर्च्यते-
                                      यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति।
                                     सर्वभूतेषु चात्मानं ततो विजुगुप्सते।।[11]
                                     यस्मिन्सर्वाणि  भूतानि आत्मैवाभूद्विजानत:
                                    तत्र को मोह: को शोक: एकत्वमनुपश्यत:[12]
 इत्येवम्प्रकारेण सर्वत्रर्षिभिर्ददृशे, येनसमाजे परस्परं वैमनस्यं नासीत्, यतोहि सर्वभूतेष्वेक एव प्रत्यङ्ङात्मा अस्ति।तच्चातुर्वर्ण्येषु व्याप्तं  दृश्यते, अनेन सामाजिक्यैकता वरीवर्धते। गीतायामपि-
                              विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि
                           शुनि चैव श्वपाके चपण्डिता: समदर्शिन:।।[13]
गीतोक्तवचनेनापि ज्ञायते यत् निषद्याया एकत्वं प्रतिपाद्यते, यतोहि पण्डिता ये भवन्ति ते समदर्शिन:, तैस्समाजे कुक्कुरेषु ,श्वपाकेषु(चाण्डालेषु),पण्डितेषु , करिषु, एक एव प्रत्यङ्ङात्मा दृश्यते। तत्र पण्डितत्वं नाम-“सदसद्विवेकिनी बुद्धिरिति पण्डापण्डा सञ्जाता अस्येति पण्डित:” पण् धातो:  “ञ्मन्ताड्ड:” इति सूत्रेण डप्रत्ययेविहिते स्त्रीत्वे टापि पण्डा इति। तत: “तदस्य सञ्जातं तारकादिभ्य इतच्इति लक्षणेन इतचि सति स्वादिकार्ये पण्डित इति भवति। एतस्मादपि  व्युत्पत्तिलभ्यार्थात् सिध्यति यत् पण्डितो नाम ब्राह्मणो नापितु विद्वान् , कश्चनापि वर्णीयो भवितुमर्हति। एतेनापि जन्मना पण्डितत्वं सिध्यत्यपितु कर्मणा एव। अतस्माद्धेतो ज्ञानानुकूलात्मवान्पुरुषस्यैव पण्डितत्वमिति सिद्ध्यतीति लक्षणम्पण्डितस्य, तु ब्राह्मणवंशोत्पन्नस्यपण्डितत्वमत: समाजस्यैकताया अक्षुण्णत्वमनेन प्रतीयते।
राष्ट्रीयता-
ऋग्वैदिककाले देशभक्तिभावनाया: विकास आसीत्। ऋग्वेदे .६६. मन्त्रे राज्यमहिम्नोपदेशो लक्ष्यते।
 “व्यचिष्टे वहुपथ्ये स्वराज्येअनेकोपायै राज्यं रक्ष्यमस्माभिः।
इहैवेधि माप च्योष्ठा: पर्वत इवाविचाचलि:,
इन्द्र एवेह ध्रुवं तिष्ठेह राष्ट्रमु धारय।[14]
अर्थाद्राजा पर्वतमिव स्थिरीभूय राष्ट्रं धारयेदिति कामना क्रियते तेन सामाजिक्यैकता भवति यदि राज्ये सामाजिकं विघटनं स्यात्तदा राजा कथं शत्रुभिर्राष्ट्रं रक्ष्येत्, अतोऽपि ज्ञायते यत् समाजे सर्वदैकता एवासीत्। ऋग्वेदे स्पष्टत्वेन लिख्यते यदेकस्मिन्नेव गृहे सर्वविधा: पुरुषा निवेषु:-   कारुरहं तातो भिषगुपलप्रक्षिणी नना।
 नानाधियो वसूयवोऽनुगा इव तस्थिमेन्द्रायेन्दो परिस्त्रव [15]
 ऋग्वेदस्य दशममण्ड्ले प्राप्यते मन्त्रोऽयम्। ऋषि: कथयतिअहं छन्दसां गायकोऽस्मि,मत्पिता वैद्य:,माता पिषनहारिणी, एवं प्रकारेणास्माभिर्विविधप्रकारका व्यवसाया अर्जनाय क्रियन्ते। एवं प्रकारेण क्वचिदपि प्रप्यते जात्याधारिवणव्यवस्था। ऋग्वेदाग्निसूक्तेऽपि विचार्यते-
उप त्वाग्ने दिवे दिवे दोषावस्तर्धिया वयम्। नमो भरन्त एमसि।
 अर्थात् वयमनुष्ठातार: प्रतिदिनमनुष्ठन्त: उत्तमबुद्धिद्वारा त्वत्सामीप्यं प्रप्नुम:,एतेन प्रतीयते यत् अनुष्ठानं तु स्व-स्वकार्येषु व्यापृता सन् सामीप्यं तव प्राप्य पापकर्मसु रता: स्याम, येन प्रतीयते यत् कर्माणि तु चातुर्वर्णीयैरपि क्रियन्ते, तस्मात् सर्वत्र ऋग्वेदे सामाजिक्यैकताया दिग्दर्शनं भवति। एवमेव बहुषु मन्त्रेषु सामाजिकता अश्नुते।
विष्णुसूक्तेऽपि दृश्यते सामाजिक्यैकता-
इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम्। समूढमस्य पांसुरेव॥ यद्यत्र साक्षादभिधेयोऽप्यर्थ: स्वीक्रियते, तदानीमपि समाजे समेषामपि वर्णानां सर्वविधैकत्वं प्रतिपाद्यते नो चेद्विष्णु: कथं त्रैलोक्येषु द्युपृथ्व्यन्तरिक्षेषु स्वकीयौ पादौ स्थापयेत्,केवलञ्च उच्चजातिमानिष्वेव स्थापयेत, किन्तु मैवं दृश्यते, अतोऽपि प्रतीयते यत् समाजे सर्वदैक्यमेवासीत्। इतोपि अक्षसूक्तेऽपि प्रतिपाद्यते  यदाक्षिकैरपि सामाजिक्यैकताया: प्रचार: क्रियते,  “अक्षैर्दीव्यति तत्र कश्चन वर्णीयोऽपि स्यादाक्षिकस्तत्रातिस्नेहेन क्रीडेयं प्रचलन्ती दृश्यते, तत्र कोऽपि अश्पृश्यताया: सामाजिकविभेदस्य वा प्रश्न।  एतस्मात्कारणात् अक्षक्रीडयापि  दृश्यते समाजे ऐक्यम्।
यथा ऋषिरुपदिशति- अक्षैर्मा दीव्यः कृशमिति कृषस्व वित्तेरमस्व बहुमन्यमान:
तत्र गाव: कितव तत्र जायाः  तन्मे विचष्टे सवितायमर्य:[16]
                         मित्रं कृणुध्वं खलु मृलता नो घोरेण चरताभि: धृष्णु।
 नि वो नु मन्युर्विशतामरातिरन्यो बभूणां प्रसृतौ न्वस्तु॥[17]
एतादृशी शिक्षा ऋषिभि: सर्ववर्णीयेभ्यो ददे। सञ्ज्ञानसूक्ते तु ऐक्यभावना दृश्यतेऽस्य मन्त्राः बहुधा प्रसिद्धा:- सङ्गच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
                           देवाभागं यथा पूर्वे सञ्जनाना उपासते।[18]
अत्रापि सामाजिक्यैकता परिव्याप्ता दृश्यते।
                     समानो मन्त्र: समिति: समानी समानं मन: सहचित्तमेषाम्।
                      समानं मन्त्रमभिमन्त्रये वःसमानेन वो हविषा जोहोमि।।[19]
                            सामनी वः आकूतिसमाना हृदयानि                         
                             समानमस्तु वो मनो यथा : सुसहासति॥[20]
सूक्तेऽस्मिन् राष्ट्रैक्यस्य जनैक्यस्य भावनायाः सञ्चारो दृश्यते। येनास्माकं समाजे सर्वदा सौमनस्यमासीत्।कठोपनिषद्यपि प्रतिपाद्यते-
अग्निर्यथैको भुवनं सम्प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव।
                                    एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं-रूपं प्रतिरूपो बभूव।[21]
अत्रापि समत्वस्यैव निदर्शना भवति। मनु: कथयति- यदि ब्राह्मणेषु तादृशा गुणा स्युर्यथाऽपेक्ष्यन्ते तदानीन्तने तु ब्राह्मणो शूद्रत्वमधिगच्छति। शूद्रश्च ब्रह्मणोचितगुणेषु सत्सु ब्राह्मण्यमेतीति प्रतिपादयति-
                     शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्।
                       क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्यावैश्यात्तथैव च॥[22]
तस्मादुक्तमनुवचनैस्तु एवमेव प्रतिभाति यत् ब्राह्मणोचिता गुणाःअध्ययनमध्यापनं यजनं याजनं दानं प्रतिग्रहश्चेति। यदि केषुचिदपि विद्येरन तदा तद्ब्रह्मणत्वमिति मनुप्रतिपादनम्। एवमेव यदि क्षत्रियवैश्यशूद्रोक्तगुणा अपि यस्मिन् स्युस्तस्य गुणानुरूपिवर्णः। सर्वविधिविचरानन्तरं निष्कर्षत्वेनोच्यते यत् कर्माधारितैव वर्णव्यवस्था नतु क्वचिदपि जात्याधारिता वणव्यवस्था दृष्टिपथमायाति,वस्तुतस्तु समाजे तु दरीदृश्यते जात्याधारिवर्णव्यवस्था तादृशस्य विनाशायास्माभि: सर्वदा प्रयासो विधास्यते।
अयं निज: परो वेति गणना लघु चेतसाम्।
 उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।
तथा यत्र विश्वं भवत्येकनीडम्इत्यादिभुक्तिभि: सर्वत्र प्रतिपादितं वर्तते।
उपसंहार:-
प्रस्तुते पत्रेऽस्मिन् राष्ट्रीयैक्यं तथा सामाजिकसमन्वयो वेदानाधृत्य कथं स्यादित्युपस्थापितमस्माभिस्तथा विविधवेदेषु वर्णव्यवस्थाया आश्रमव्यस्थायास्तथा गीतोक्तापि वर्णव्यस्था प्रतिपादिता वर्तते। संस्कृतिरस्माकमियं यत् विश्वस्यैकताया: कल्याणस्य सर्वदा कीर्तनं क्रियते-
                        सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया:
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्।।
  “यत्र विश्वं भवत्येकनीडम्” “वसुधैव कुटुम्बकम्”  यत्रैतादृशी भावना  परिदृश्यते। तत्र कथं समाजे एक्यं भविष्यतीति चिन्त्यम्, एवं तु तदैव सम्भाव्यते यदा सर्वैरपि जनैर्मनसा वाचा कर्मणा   वेदानधीत्य व्यवहरिष्यते। उक्तञ्च हरिणा-
                                     मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम्।
 मनस्यन्यत्   वचस्यन्यत्  कर्मन्यन्यत् दुरात्मनाम्॥  
इतोपि वेदेषु प्रतिपादिता सामाजिकी भावनाया: सारांसः-
 स्वस्त्यस्तु विश्वस्य खलः प्रसीदतां
 ध्यायन्तु भद्राणि शिवं मिथो धिया
मनश्च भद्रं भजतादधोक्षजे ,
आवेश्यतां नो मतिरप्यहैतुकी [23]


सन्दर्भग्रन्थसूची-
-वैदिकभगवद्दत: वैदिकवाङ्मयस्येतिहास:, सम्पादक:-सत्यश्रवा ,नवदेहली प्रणवप्रकाशनम्,पञ्जाबीबाग१/२८ 
-हरिदत्तकृष्णकुमारौ, ऋक्सूक्तसङ्ग्रह:, मेरठ साहित्य भण्डार, सुभाष बाजार २५००२
-द्विवेदी, डॉ. कपिलदेव, वैदिकसाहित्येवं संस्कृति:,
वाराणसी, विश्वविद्यालयप्रकाशनम्, पञ्चमसंस्करणम्,२०१०
-द्विवेदी,पारसनाथ:,वैदिकसाहित्यस्येतिहास:,वाराणसी,
चौखम्भा सुरभारती प्रकाशनम्, २०११-२०१२,
- मनु:, मनुस्मृति:, सम्पादक:-शास्त्री, राजवीर:, देहली, आर्ष साहित्य प्रचार ट्रष्ट, ४५५, खारीवावली,



[1] ऋग्वेद-१०.९० /१२यजुर्वेद ३१.११
[2]अथर्ववेद १२.. से
[3] यजुर्वेद-१८.४८
[4] १९.६२.
[5] गीता .१३
[6] यजुर्वेद २६.
[7] ऋग्वेद -.- अथर्ववेद२०-१०४- अयं राज्यं समुद्रमिव पप्रथे…………………………शवो यज्ञेषु विप्रराज्ये।
[8] ऋग्वेद-.११०. अनु…………………..मदामसि,महे समर्यराज्ये।
[9] मनुस्मृति -१६८
[10] ऋग्वेद १०.१०९-
[11] ईशोपनिषद् मन्त्र
[12] वहीं  मन्त्र
[13] गीता५-१८
[14] ऋग्वेद १०.१७३.
[15] ऋग्वेद१०.११७.
[16] ऋग्वेद अक्षसूक्त १३
[17] वहीं १४
[18] वहीं सञ्ज्ञानसूक्त१०-१९१-
[19] वहीं सञ्ज्ञानसूक्त१०-१९१-
[20] वहीं सञ्ज्ञानसूक्त१०-१९१-
[21] कठोपनिषद् द्वितीयवल्ली
[22] मनुस्मृति १०-६५
[23] भागवत पञ्चमस्कन्ध १८ /